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1919 की एक बात


ये 1919 ईस्वी की बात है, भाईजान, जब रौलेट ऐक्ट के ख़िलाफ़ सारे पंजाब में एजीटेशन हो रहा था. मैं अमृतसर की बात कर रहा हूँ. सर माईकल ओडवायर ने डिफ़ेन्स ऑफ़ इण्डिया रूल्ज़ के मातहत गांधी जी का दाख़िला पंजाब में बन्द कर दिया था. वो इधर आ रहे थे कि पलवाल के मुक़ाम पर उनको रोक लिया गया और गिरफ़्तार करके वापस बम्बई भेज दिया गया. जहाँ तक में समझता हूँ, भाईजान, अगर अँग्रेज़ ये ग़लती न करता तो जलियाँवाला बाग़ का हादसा उस की हुक्मरानी की स्याह तारीख़ में ऐसे ख़ूनीं वर्क़ का इज़ाफ़ा कभी न करता.

क्या मुसलमान, क्या हिन्दू, क्या सिख, सब के दिल में गांधी जी की बेहद इज़्ज़त थी. सब उन्हें महात्मा मानते थे. जब उन की गिरफ़्तारी की ख़बर लाहौर पहुँची तो सारा कारोबार एकदम बन्द हो गया. यहाँ से अमृतसर वालों को मालूम हुआ, चुनाँचे यूँ चुटकियों में मुकम्मल हड़ताल हो गई.

कहते हैं कि नौ अप्रैल की शाम को डाक्टर सत्यपाल और डाक्टर किचलू की ज़िलावतनी के आर्डर डिप्टी कमिशनर को मिल गए थे. वो उन की तामील के लिए तैयार नहीं था क्योंकि उसके ख़्याल के मुताबिक़ अमृतसर में किसी हैजान-ख़ेज बात का ख़तरा नहीं था. लोग पुरअम्न तरीक़े से एहितजाजी जलसे वग़ैरा करते थे. जिनसे तशद्दुद का सवाल ही पैदा नहीं होता था. मैं अपनी आँखों देखा हाल बयान करता हूँ. नौ को रामनवमी थी.. जलूस निकला मगर मजाल है जो किसी ने हुक्काम की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ एक क़दम उठाया हो, लेकिन भाईजान, सर माईकल अजब औंधी खोपड़ी का इनसान था. उस ने डिप्टी कमिशनर की एक ना सुनी. उस पर, बस, यही ख़ौफ़ सवार था कि ये लीडर महात्मा गांधी के इशारे पर सामराज का तख़्ता उलटने के दर पे हैं और जो हड़तालें हो रही हैं और जलसे मुनअक़िद होते हैं उनके पस-ए-पर्दा यही साज़िश काम कर रही है.

डाक्टर किचलू और डाक्टर सत्यपाल की ज़िलावतनी की ख़बर आनन-फ़ानन शहर में आग की तरह फैल गई. दिल हर शख़्स का मुकद्दर था. हर वक़्त धड़का-सा लगा रहता था कि कोई बहुत बड़ा हादिसा बरपा होने वाला है, लेकिन, भाईजान, जोश बहुत ज़्यादा था. कारोबार बन्द थे. शहर क़ब्रिस्तान बना हुआ था, पर इस क़ब्रिस्तान की ख़ामोशी में भी एक शोर था. जब डाक्टर किचलू और सत्यपाल की गिरफ़्तारी की ख़बर आई तो लोग हज़ारों की तादाद में इकट्ठे हुए कि मिलकर डिप्टी कमिशनर बहादुर के पास जाएँ और अपने महबूब लीडरों की जिलावतनी के अहकाम मंसूख़ कराने की दरख़ास्त करें. मगर वो ज़माना, भाईजान, दरख़ास्तें सुनने का नहीं था. सर माईकल जैसा फ़िरऔन हाकिम-ए-आला था. उसने दरख़ास्त सुनना तो कुजा लोगों के इस इजतिमा ही को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया.

अमृतसर.......वो अमृतसर जो कभी आज़ादी की तहरीक का सब से बड़ा मर्कज़ था, जिस के सीने पर जलियाँवाला बाग़ जैसा क़ाबिल-ए-फ़ख़्रज़ख़्म था, आज किस हालत में है?.......लेकिन छोड़िए इस क़िस्से को. दिल को बहुत दुख होता है. लोग कहते हैं कि इस मुक़द्दस शहर में जो कुछ आज से पाँच बरस पहले हुआ उस के ज़िम्मेदार भी अँग्रेज़ हैं. होगा भाईजान, पर सच्च पूछिए तो इस लहू में, जो वहाँ बहा है, हमारे अपने ही हाथ रंगे हुए नज़र आते हैं. ख़ैर !.......

डिप्टी कमिशनर साहब का बंगला सिविल लाइन्स में था. हर बड़ा अफ़सर और हर बड़ा टोडी शहर के इस अलग-थलग हिस्से में रहता था.... आप ने अमृतसर देखा है तो आप को मालूम होगा कि शहर और सिविल लाइन्स को मिलाने वाला एक पुल है जिसपर से गुज़रकर आदमी ठण्डी सड़क पर पहुँचता है. जहाँ हाकिमों ने अपने लिए ये अर्ज़ी जन्नत बनाई हुई थी.

हुजूम जब हाल दरवाज़े के क़रीब पहुँचा तो मालूम हुआ कि पुल पर घुड़सवार गोरों का पहरा है. हुजूम बिलकुल न रूका और बढ़ता गया. भाईजान, मैं इसमें शामिल था. जोश कितना था, मैं बयान नहीं कर सकता, लेकिन सब निहत्थे थे. किसी के पास एक मामूली छड़ी तक भी नहीं थी. असल में वो तो सिर्फ़ इस ग़रज़ से निकले थे कि इजतिमाई तौर पर अपनी आवाज़ हाकिम-ए-शहर तक पहुँचाएँ और उस से दरख़ास्त करें कि डाक्टर किचलू और डाक्टर सत्यपाल को ग़ैर मशरूत तौर पर रिहा कर दे. हुजूम पुल की तरफ़ बढ़ता रहा. लोग क़रीब पहुँचे तो गोरों ने फ़ायर शुरू कर दिए. इससे भगदड़ मच गई. वो गिनती में सिर्फ़ बीस-पच्चीस थे और हुजूम सैंकड़ों पर मुश्तमिल था, लेकिन, भाई, गोली की दहश्त बहुत होती है. ऐसीअफ़रा-तफ़री फैली कि अलामां, कुछ गोलियों से घायल हुए और कुछ भगदड़ में ज़ख़्मी हुए.

दाएँ हाथ को गन्दा नाला था. धक्का लगा तो मैं उस में गिर पड़ा. गोलियाँ चलनी बन्द हुईं तो मैंने उठ कर देखा. हुजूम तितर बितर हो चुका था.ज़ख़्मी सड़क पर पड़े थे और पुल पर गोरे खड़े हँस रहे थे. भाईजान, मुझे क़तई याद नहीं कि उस वक़्त मेरी दिमाग़ी हालत किस क़िस्म की थी.मेरा ख़्याल है कि मेरे होश-ओ-हवास पूरी तरह सलामत नहीं थे. गन्दे नाले में गिरते वक़्त तो मुझे कतई होश नहीं था. जब बाहर निकला तो जो हादिसा वक़ूअ पज़ीर हुआ था, उस के ख़द्द-ओ-ख़ाल आहिस्ता-आहिस्ता दिमाग़ में उभरने शुरू हुए.

दूर शोर की आवाज़ सुनाई दे रही थी, जैसे बहुत से लोग ग़ुस्से में चीख़-चिल्ला रहे हैं. मैं गंदा नाला उबूर करके ज़ाहिरा पीर के तकिए से होता हुआ हाल दरवाज़े के पास पहुँचा तो देखा कि तीस चालीस नौजवान जोश में भरे पत्थर उठा-उठा कर दरवाज़े के घड़ियाल पर मार रहे हैं. उस का शीशा टूट कर सड़क पर गिरा तो एक लड़के ने बाकियों से कहा — चलो.... मलिका का बुत तोड़ें!

दूसरे ने कहा — नहीं यार.... कोतवाली को आग लगाएँ!

तीसरे ने कहा — और सारे बैंकों को भी!

चौथे ने उन को रोका — ठहरो.... इस से क्या फ़ायदा... चलो पुल पर उन लोगों को मारें.

मैंने उस को पहचान लिया. ये थैला कंजर था.... नाम मोहम्मद तुफ़ैल था, मगर थैला कंजर के नाम से मशहूर था. इस लिए कि एक तवाइफ़ के बतन से था. बड़ा आवारागर्द था. छोटी उम्र ही में उस को जोय और शराबनोशी की लत पड़ गई थी. इस की दो बहनें शमशाद और अलमास अपने वक़्त की हसीन-तरीन तवाइफ़ें थीं. शमशाद का गला बहुत अच्छा था. उस का मुजरा सुनने के लिए रईस बड़ी-बड़ी दूर से आते थे. दोनोंअपने भाई के करतूतों से बहुत नालाँ थीं. शहर में मशहूर था कि उन्होंने एक क़िस्म का उस को आक़ कर रखा है. फिर भी वो किसी न किसी हीले अपनी ज़रूरीयात के लिए उन से कुछ न कुछ वसूल कर ही लेता था. वैसे वो बहुत ख़ुशपोश रहता था. अच्छा खाता था, अच्छा पीता था. बड़ा नफ़ासत-पसन्द था. हँसोड़पन और लतीफ़ागोई मिज़ाज में कूट-कूट के भरी थी. मीरासियों और भाण्डों के सोक़यानापन से बहुत दूर रहता था.लम्बा क़द, भरे-भरे हाथ-पाँव, मज़बूत कसरती बदन. नाक नक़्शे का भी ख़ासा था.

पुरजोश लड़कों ने उस की बात न सुनी और मलिका के बुत की तरफ़ चलने लगे. उस ने फिर उनसे कहा — मैंने कहा मत ज़ाए करो अपना जोश. इधर आओ मेरे साथ.... चलो उन को मारें, जिन्होंने हमारे बेक़सूर आदमियों की जान ली है और उन्हें ज़ख़्मी किया है..... ख़ुदा की क़सम, हम सब मिलकर उनकी गर्दन मरोड़ सकते हैं... चलो!

कुछ लड़के रवाना हो चुके थे. बाक़ी रुक गए. थैला पुल की तरफ़ बढ़ा तो वे सब उस के पीछे चलने लगे. मैंने सोचा कि माँओं के ये लाल बेकार मौत के मुँह में जा रहे हैं. मैं फव्वारे के पास दुबका खड़ा था. वहीं से मैंने थैले को आवाज़ दी और कहा — मत जाओ यार... क्यों अपनी और उनकी जान के पीछे पड़े हो.

थैले ने यह सुनकर एक अजीब-सा क़हक़हा बुलन्द किया और मुझ से कहा — थैला सिर्फ़ ये बताने चला है कि वो गोलियों से डरने वाला नहीं. फिर वो अपने साथियों से मुख़ातिब हुआ — तुम डरते हो तो वापस जा सकते हो.

ऐसे मौक़ों पर बढ़े हुए क़दम उल्टे कैसे हो सकते हैं. और फिर वो भी उस वक़्त जब लीडर अपनी जान हथेली पर रख कर आगे-आगे जा रहा हो.थैले ने क़दम तेज़ किए तो उसके साथियों को भी करने पड़े.

हाल दरवाज़े से पुल का फ़ासला कुछ ज़्यादा नहीं.... होगा कोई साठ-सत्तर गज़ के क़रीब.... थैला सब से आगे-आगे था. जहाँ से पुल का दोरौया मुतवाज़ी जंगला शुरू होता है, वहाँ से पन्द्रह- बीस क़दम के फ़ासले पर दो घुड़सवार गोरे खड़े थे. थैला नारे लगाता जब बंगले के आग़ाज़ के पास पहुँचा तो फ़ायर हुआ, मैं समझा कि वो गिर पड़ा है... लेकिन देखा कि वो उसी तरह.... ज़िन्दा आगे बढ़ रहा है. उसके बाक़ी साथी डर के भाग उठे हैं. मुड़कर उसने पीछे देखा और चिल्लाया — भागो नहीं.... आओ!

उस का मुँह मेरी तरफ़ था कि एक और फ़ायर हुआ. पलट कर उसने गोरों की तरफ़ देखा और पीठ पर हाथ फेरा... भाईजान, नज़र तो मुझे कुछ नहीं आना चाहिए था, मगर मैंने देखा कि उस की सफ़ेद बोसकी की क़मीज़ पर लाल-लाल धब्बे थे.... वो और तेज़ी से बढ़ा, जैसे ज़ख़्मी शेर... एक और फ़ायर हुआ. वो लड़खड़ाया मगर एकदम क़दम मज़बूत करके वो घुड़सवार गोरे पर लपका और एकाएक न जाने क्या हुआ.... घोड़े की पीठ ख़ाली थी. गोरा ज़मीन पर था और थैला उस के ऊपर.... दूसरे गोरे ने, जो क़रीब था और पहले बौखला गया था, बिदकते हुए घोड़े को रोका और धड़ाधड़ फ़ायर शुरू कर दिए.... इस के बाद जो कुछ हुआ मुझे मालूम नहीं. मैं वहाँ फव्वारे के पास बेहोश हो कर गिर पड़ा.

भाईजान, जब मुझे होश आया तो में अपने घर में था. चन्द पहचान केआदमी मुझे वहाँ से उठा लाए थे. उन की ज़बानी मालूम हुआ कि पुल पर से गोलियाँ खाकर हुजूम उग्र हो गया था. नतीजा इसका ये हुआ कि मलिका के बुत को तोड़ने की कोशिश की गई. टाउन हाल और तीन बैंकों को आग लगी और पाँच या छह यूरोपियन मारे गए. ख़ूब लूट मची.

लूट-खसोट का अँग्रेज़ अफ़सरों को इतना ख़याल नहीं था. पाँच या छःयूरोपियन हलाक हुए थे. इस का बदला लेने के लिए ही जलियाँवाला बाग़ का ख़ूनीं हादिसा हुआ. डिप्टी कमिशनर बहादुर ने शहर की बागडोर जनरल डावर के सपुर्द कर दी. चुनांचे जनरल साहिब ने बारह अप्रैल को फ़ौजियों के साथ शहर के मुख़्तलिफ़ बाज़ारों में मार्च किया और दर्जनों बेगुनाह आदमी गिरफ़्तार किए. तेरह को जलियाँवाला बाग़ में जलसा हुआ. क़रीब-क़रीब पच्चीस हज़ार का मजमा था. शाम के क़रीब जनरल डावर मुसल्लह गोरों और सिखों के साथ वहाँ पहुँचा और निहत्थे आदमियों पर गोलियों की बारिश शुरू कर दी.

उस वक़्त तो किसी को इसका ठीक-ठीक अन्दाज़ा नहीं था कि कितने आदमी मारे गए हैं. लेकिन बाद में जब जाँच हुई तो पता चला कि एक हज़ार हलाक हुए हैं और तीन या चार हज़ार के क़रीब ज़ख़्मी.... लेकिन मैं थैले की बात कर रहा था.... भाईजान, आँखों देखी आप को बता चुका हूँ... बे-ऐब ज़ात ख़ुदा की है. मरहूम में चारों ऐब शरई थे. एक पेशा तवाइफ़ के बतन से था मगर जियाला था.... मैं अब यक़ीन के साथ कह सकता हूँ कि इस मलऊन गोरे की पहली गोली भी उस को लगी थी. आवाज़ सुन कर उस ने जब पलटकर अपने साथियों की तरफ़ देखा था, और उन्हें हौसला दिलाया था, तब जोश की हालत में उस को मालूम नहीं हुआ था कि उसकी छाती में गर्म-गर्म सीसा उतर चुका है. दूसरी गोली उस की पीठ में लगी. तीसरी फिर सीने में.... मैंने देखा नहीं, पर सुना है जब थैले की लाश गोरे से जुदा की गई तो उसके दोनों हाथ उस की गर्दन में इस बुरी तरह से पैवस्त थे कि अलहदा ही नहीं होते थे.... गोरा तब जहन्नुम में जा चुका था....

दूसरे रोज़, जब थैले की लाश कफ़न-दफ़न के लिए उस के घर वालों के सुपुर्द की गई तो उसका बदन गोलियों से छलनी हो रहा था.... दूसरे गोरे ने तो अपना पूरा पिस्तौल ही उस पर ख़ाली कर दिया था... मेरा ख़याल है, उस वक़्त मरहूम की रूह क़फ़स-ए-उंसुरी से परवाज़ कर चुकी थी. इस शैतान के बच्चे ने सिर्फ़ उस के मुर्दा जिस्म पर चाँदमारी की थी.

कहते हैं, जब थैले की लाश मुहल्ले में पहुँची तो कुहराम मच गया. अपनी बिरादरी में वो इतना मक़बूल नहीं था, लेकिन उस की क़ीमा-क़ीमा लाश देखकर सब धाड़ें मार-मार कर रोने लगे. उस की बहनें शमशाद और अलमास तो बेहोश हो गईं. जब जनाज़ा उठा तो इन दोनों ने ऐसे बीन किए कि सुनने वाले लहू के आँसू रोते रहे.

भाईजान, मैंने कहीं पढ़ा था कि फ़्राँस के इन्क़लाब में पहली गोली वहाँ की एक टखयाई को लगी थी. मरहूम मुहम्मद तुफ़ैल एक तवाइफ़ का लड़का था. इन्क़लाब की इस जद्द-ओ-जहद में उसको जो पहली गोली लगी थी, दसवीं थी या पचासवीं. इस के मुताल्लिक़ किसी ने भी तहक़ीक़ नहीं की. शायद इसलिए कि सोसाइटी में इस ग़रीब का कोई रुतबा नहीं था. मैं तो समझता हूँ कि पंजाब के इस ख़ूनीं ग़ुसल में नहाने वालों की फ़हरिस्त में थैले कंजर का नाम-ओ-निशान तक भी नहीं होगा... और ये भी कोई पता नहीं कि ऐसी कोई फ़हरिस्त तैयार भी हुई थी.

सख़्त हंगामी दिन थे. फ़ौजी हुकूमत का दौर-दौरा था. वो देव, जिसे मार्शल लॉ कहते हैं, शहर के गली-गली कूचे-कूचे में डकारता फिरता था. बहुत अफ़रा-तफ़री के आलम में उस ग़रीब को जल्दी-जल्दी यूँ दफ़न किया गया, जैसे उसकी मौत उसके सोगवार अज़ीज़ों का एक संगीन जुर्म थी जिसके निशानात वो मिटा देना चाहते थे.

बस भाईजान, थैला मर गया. थैला दफ़ना दिया गया और.... और ये कहकर मेरा हमसफ़र पहली मर्तबा कुछ कहते-कहते रुका और ख़ामोश हो गया. ट्रेन दनदनाती हुई जा रही थी. पटरियों की खटाखट ने ये कहना शुरू कर दिया. थैला मर गया... थैला दफ़ना दिया गया.... थैला मर गया.... थैला दफ़ना दिया गया. इस मरने और दफ़नाने के दरमयान कोई फ़ासला नहीं था, जैसे वो इधर मरा और उधर दफ़ना दिया गया. और खट-खट के साथ इन अलफ़ाज़ की हम-आहंगी कुछ इस क़दर जज़्बात से आरी थी कि मुझे अपने दिमाग़ से इन दोनों को जुदा करना पड़ा. चुनाँचे मैंने अपने हम-सफ़र से कहा — आप कुछ और भी सुनाने वाले थे?

चौंक कर उस ने मेरी तरफ़ देखा और बोला — जी हाँ.... इस दास्तान का एक अफ़सोसनाक हिस्सा बाक़ी है.

मैंने पूछा — वह क्या?

उस ने कहना शुरू किया — मैं आप से अर्ज़ कर चुका हूँ कि थैले की दो बहनें थीं. शमशाद और अलमास. बहुत ख़ूबसूरत थीं. शमशाद लम्बी थी.पतले-पतले नक़्श. ग़लाफ़ी आँखें. ठुमरी बहुत ख़ूब गाती थी. सुना है, ख़ाँ साहब, फ़तह अली ख़ां से तालीम लेती रही थी. दूसरी अलमास थी. उस के गले में सुर नहीं था, लेकिन नाचने में अपना सानी नहीं रखती थी. मुजरा करती थी तो ऐसा लगता था कि इस का अंग-अंग बोल रहा है. हर भाव में एक घात होती थी.... आँखों में वो जादू था जो हर एक के सर पर चढ़ के बोलता था.

मेरे हमसफ़र ने तारीफ़-ओ-तौसीफ में कुछ ज़रूरत से ज़्यादा वक़्त लिया. मगर मैंने टोकना मुनासिब न समझा. थोड़ी देर के बाद वो ख़ुद इस लम्बे चक्कर से निकला और दास्तान के अफ़सोनाक हिस्से की तरफ़ आया — क़िस्सा यह है, भाईजान, कि इन आफ़त की परकाला दो बहनों के हुस्न-ओ-जमाल का ज़िक्र किसी ख़ुशामदी ने फ़ौजी अफ़सरों से कर दिया.... बल्वे में एक मेम.... क्या नाम था उस चुड़ैल का?मिस....मिस शेरवुड मारी गई थी.... तय ये हुआ कि उन को बुलवाया जाए और.... और.... जी भर के इंन्तकाम लिया जाए.... आप समझ गए ना, भाई जान?

मैंने कहा — जी हाँ!

मेरे हमसफ़र ने एक आह भरी — ऐसे नाज़ुक मामलों में तवाइफ़ें और कस्बियाँ भी अपनी माँएँ-बहनें होती हैं.... मगर भाईजान ये मुल्क अपनी इज़्ज़त-ओ-नामूस को, मेरा ख़्याल है, पहचानता ही नहीं. जब ऊपर से इलाक़े के थानेदार को आर्डर मिला तो वो फ़ौरन तैयार हो गया. चुनांचे वो ख़ुद शमशाद और अलमास के मकान पर गया और कहा कि साहब लोगों ने याद किया है. वो तुम्हारा मुजरा सुनना चाहते हैं... भाई की क़ब्र की मिट्टी भी अभी तक ख़ुशक नहीं हुई थी. अल्लाह को प्यारा हुए उस ग़रीब को सिर्फ़ दो दिन हुए थे कि ये हाज़िरी का हुक्म सादिर हुआ कि आओ हमारे हुज़ूर नाचो.... अज़िय्यत का इससे बढ़ कर पुर-अज़िय्यत तरीक़ा क्या हो सकता है....? मुस्तबइद तम्सख़ुर की ऐसी मिसाल, मेरा ख़्याल है, शायद ही कोई और मिल सके.... क्या हुक्म देने वालों को इतना ख़याल भी न आया कि तवाइफ़ भी ग़ैरतमन्द होती है? ....हो सकती है... क्यों नहीं हो सकती? उस ने अपने आप से सवाल किया, लेकिन मुख़ातिब वो मुझसे ही था.

मैंने कहा — हाँ, हो सकती है!

जी हाँ ....थैला आख़िर इन का भाई था. उस ने किसी की मार ख़ाने की लड़ाई-भिड़ाई में अपनी जान नहीं दी थी. वो शराब पी कर दंगा-फ़साद करते हुए हलाक नहीं हुआ था. उसने वतन की राह में बड़े बहादुराना तरीक़े पर शहादत का जाम पिया था. वो एक तवाइफ़ के बतन से था. लेकिन वो तवाइफ़ माँ थी और शमशाद और अलमास उसी की बेटियां थीं और ये थैले की बहनें थीं.... तवाइफ़ें बाद में थीं.... और वो थैले की लाश देख कर बेहोश हो गई थीं. जब उस का जनाज़ा उठा था तो उन्होंने ऐसे बीन किए थे कि सुन कर आदमी लहू रोता था.....

मैंने पूछा — वो गईं?

मेरे हमसफ़र ने इस का जवाब थोड़े वक़फ़े के बाद उदासी से दिया — जी हाँ... जी हाँ गईं... ख़ूब सज बनकर. एक दम उसकी उदासी गहरी हो गई — सोलह सिंगार करके अपने बुलाने वालों के पास गईं.... कहते हैं कि ख़ूब महफ़िल जमी.... दोनों बहनों ने अपने जौहर दिखाए.... ज़रक़-बरक़ पिशवाज़ों में मलबूस वो कोह-ए-क़ाफ़ की परियाँ मालूम होती थीं....शराब के दौर चलते रहे और वो नाचती-गाती रहीं... ये दोनों दौर चलते रहे .... और कहते हैं कि.... रात के दो बजे एक बड़े अफ़सर के इशारे पर महफ़िल बरख़ास्त हुई....

मेरा हमसफ़र उठ खड़ा हुआ और बाहर भागते हुए दरख़्तों को देखने लगा.पहियों और पटरियों की आहनी गड़गड़ाहट की ताल पर उसके आख़िरी दो लफ़्ज़ नाचने लगे — बरख़ास्त हुई... बरख़ास्त हुई.

मैंने अपने दिमाग़ में उन्हें, आहनी गड़गड़ाहट से नोच कर अलहदा करते हुए उससे पूछा — फिर क्या हुआ?
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भागते हुए दरख़्तों और खम्भों से नज़रें हटा कर उस ने बड़े मज़बूत लहजे में कहा — उन्होंने अपनी ज़रक़-बरक़ पिशवाज़ें नोच डालें और अलिफ़ नंगी हो गईं और कहने लगीं.... लो देख लो... हम थैले की बहनें हैं.... उस शहीद की, जिसके ख़ूबसूरत जिस्म को तुमने सिर्फ़ इसलिए अपनी गोलियों से छलनी-छलनी किया था कि उसमें वतन से मोहब्बत करने वाली रूह थी... हम उसी की ख़ूबसूरत बहनें हैं... आओ, अपनी शहवत के गर्म-गर्म लोहे से हमारा ख़ुशबूओं में बसा हुआ जिस्म दागदार करो.... मगर ऐसा करने से पहले सिर्फ़ हमें एक बार अपने मुँह पर थूक लेने दो....

यह कहकर वो ख़ामोश हो गया. कुछ इस तरह कि और नहीं बोलेगा. मैंने फ़ौरन ही पूछा — फिर क्या हुआ?

उस की आँखों में आँसू डबडबा आए — उनको.... उनको गोली से उड़ा दिया गया.

मैंने कुछ न कहा. गाड़ी आहिस्ता होकर स्टेशन पर रुकी तो उस ने क़ुली बुलाकर अपना अस्बाब उठवाया. जब जाने लगा तो मैं ने उस से कहा — आपने जो दास्तान सुनाई, इस का अंजाम मुझे आप का ख़ुदसाख़्ता मालूम होता है.

एकदम चौंककर उसने मेरी तरफ़ देखा — ये आप ने कैसे जाना?

मैंने कहा — आप के लहजे में एक नाक़ाबिल-ए-बयान कर्ब था.

मेरे हमसफ़र ने अपने हलक़ की तल्ख़ी थूक के साथ निगलते हुए कहा — जी हाँ... उन हराम..., वो गाली देते-देते रुक गया — उन्होंने अपने शहीद भाई के नाम पर बट्टा लगा दिया.

यह कहकर वो प्लेटफार्म पर उतर गया.

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