महाभारत
की कहानियां- देवव्रत
से भीष्म
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महाभारत की
कथा में सबसे प्रसिद्ध और गरिमामय पात्र पितामह भीष्म का है. उनका नाम भीष्म क्यों
पड़ा इस सम्बन्ध में महर्षि वेदव्यास लिखित महाभारत में एक कथा का वर्णन आता है जो
यहां दिया जा रहा है.
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हस्तिना पुर
के राजा शांतनु देवी गंगा पर मोहित हो गए और उन्होंने उनके सामने विवाह का
प्रस्ताव रखा. देवी गंगा ने उनके सामने शर्त रखी की, वे तभी उनसे विवाह करेंगी जब वे इस बात का वचन दे कि राजा शांतनु उनसे कभी
कोई प्रश्न नहीं करेंगे.
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देवी गंगा के
रूप पर मोहित राजा ने उन्हें वचन दिया कि वे कभी उनसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे और
अगर वे अपना वचन निभाने में सक्षम नहीं होते हैं तो देवी गंगा उन्हें छोड़कर जाने के लिए स्वतंत्र
हैं.
दोनों का
विवाह हुआ और जल्दी ही उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई लेकिन देवी गंगा ने अपने
इस पुत्र को नदी में बहा दिया. राजा शांतनु इस बात से दुखी हुए लेकिन वे वचनबद्ध
थे और प्रश्न नहीं कर सकते थे.
देवी गंगा ने
इसी तरह अपने सात पुत्रों को नदी में बहा दिया और वचनबद्ध राजा शांतनु ने उनके कोई
प्रश्न नहीं किया लेकिन जब वे अपने आठवें पुत्र को नदी में बहाने जा रही थी तो
राजा ने उन्हें रोक कर प्रश्न कर लिया कि आखिर वे उनको पुत्रों की हत्या क्यों कर
रही हैं.
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देवी गंगा ने
प्रश्न का उत्तर दिया कि वे दरअसल उन आठ वसुओं का उद्धार कर रही थी जिन्हे ऋषि के
श्राप की वजह से मृत्यु लोक में जन्म लेना पड़ा था. आठों वसुओं ने इसके लिए देवी
गंगा से प्रार्थना की थी और वे उन्हीं का कार्य पूरा कर रही थी.
राजा ने अपना
वचन तोड़ दिया था इसलिए देवी गंगा ने उन्हें छोड़ कर चली गई लेकिन उन्हांेने राजा से
वादा किया कि वे उनके आठवें पुत्र का पालन करेंगी और युवा होने पर राज्य के
राजकुमार को उन्हें सौंप देंगी.
युवा होने पर
राजकुमार देवव्रत को देवी गंगा ने हस्तिनापुर के राजा शांतनु को सौंप दिया.
राजकुमार देवव्रत शस्त्र विद्या में निपुण थे और संसार में ऐसा कोई नहीं था जो
उन्हें युद्ध में हरा सके.
इसी बीच राजा
शांतनु को केवट राज की कन्या से प्रेम हो गया और वे कन्या से विवाह के लिए केवटराज
के पास पहुंचे. केवटराज ने राजा के सामने शर्त रख दिया कि इसी शर्त पर वे कन्या का
विवाह राजा से करेंगे अगर उनसे होने वाली संतान को हस्तिनापुर का उत्तराधिकार
मिलेगा.
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राजा शांतुन
अपने पुत्र देवव्रत के साथ यह अन्याय नहीं करना चाहते थे. इसलिए वे खाली हाथ वापस
लौट आए. जब राजकुमार देवव्रत को इस घटना के बारे में पता लगा तो वे स्वयं केवटराज
के पास पहुंचे और अपने पिता के साथ उनकी पुत्री के विवाह के लिए आग्रह किया.
केवटराज ने
उनके सामने भी यही शर्त रखी कि अगर उनकी पुत्री का पुत्र हस्तिनापुर का राजा बनेगा
तभी वे इस विवाह के लिए राजी होंगे. राजकुमार देवव्रत ने इसके लिए हामी भर दी.
केवटराज को तब भी संतोष नहीं हुआ.
उन्होंने
राजकुमार देवव्रत के सामने यह आशंका जताई कि अगर भविष्य में राजकुमार देवव्रत के
पुत्र ने उनके नाती के सामने चुनौती खड़ी कर दी तो उस सूरत में क्या होगा. राजकुमार
देवव्रत ने अपने पिता की खुशी के लिए भीषण प्रतिज्ञा ली कि वे आजीवन ब्रह्मचारी
रहेंगे.
इस भीषण
प्रतिज्ञा के कारण उन्हें देवव्रत भीष्म की संज्ञा दी गई. भीष्म ने कभी विवाह नहीं
किया और आजीवन एक सेवक की भांति हस्तिनापुर के राजसिंहासन की सेवा करते रहे.
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