कृष्ण सुदामा की कहानी
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कृष्ण सुदामा की मित्रता की कहानी पूरी दुनिया में विख्यात है. मित्रता की यह सुंदर कथा अमीर—गरीब और वर्ग भेद के खिलाफ शिक्षा प्रदान करती है. बचपन में भगवान कृष्ण को शिक्षा के लिए महर्षि संदीपन के आश्रम में भेजा गया. वहां भगवान कृष्ण की मित्रता सुदामा नामक एक गरीब ब्राह्मण बालक से हो गई. दोनों साथ ही रहते और साथ ही खेलते.
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एक दिन गुरूमाता ने कृष्ण और सुदामा दोनों को जंगल से लकड़िया लाने को कहा. दोनो मित्र जंगल से लकड़िया लेने के लिए गए तो तेज तूफान आ गया. दोनों ने एक वृक्ष पर चढ़कर बरसात और तूफान से बचने की चेष्ठा की. इधर बरसात नहीं रूकी और रात हो गई. दोनों को भूख लग आई. सुदामा अपने साथ एक पोटली में चावल लेकर आए थे. उन्होंने कृष्ण को वहीं चावल की पोटली पकड़ा दी. दोनों मित्रो ने बांटकर भोजन किया और उस दिन से कृष्ण और सुदामा की मित्रता और गहरी हो गई.
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समय बीता और दोनों की शिक्षा पूरी हो गई और भगवान कृष्ण द्वारिका के राजा बन गए लेकिन सुदामा गरीब ही रहे. सुदामा का जीवन बहुत कष्टमय हो गया. जब गरीबी की वजह से बच्चों के लालन—पालन में समस्या होने लगी तो उन्होंने अपने मित्र कृष्ण से सहायता लेने की सोची. लेकिन फिर एक दूसरा संकट सामने आ गया.
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वे अपने मित्र के पास खाली हाथ कैसे जाए. सुदामा ने यह बात अपनी पत्नी से बताई. पत्नी ने बुरे समय के लिए कुछ चावल बचा कर रखा था सो सुदामा को वही चावल एक पोटली में बांध कर सौंप दिया. सुदामा ने पोटली कमर से बांधी और कृष्ण से मिलने के लिए द्वारिका की ओर चल पड़े.
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कई दिन की यात्रा के बाद सुदामा द्वारिका पहुंचे और कृष्ण से मिलने के लिए राजभवन पहुंच गए. वहां द्वारपाल ने एक फटेहाल ब्राह्मण को देखा तो उन्हे द्वार पर ही रोक लिया. सुदामा ने जब द्वारपाल को बताया कि वे कृष्ण के मित्र है और उनसे मिलना चाहते हैं तो द्वारपाल ने पहले तो उपहास किया लेकिन बाद में वह कृष्ण तक सुदामा का संदेश पहुंचाने के लिए राजी हो गया.
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द्वारपाल अंदर गया और कृष्ण से बोला कि सुदामा नाम को एक ब्राह्मण उनसे मिलने पर आया है और द्वार पर खड़ा है. सुदामा का नाम सुनते ही कृष्ण नंगे पैर ही द्वार पर दौड़े चले आए और सुदामा को गले से लगा लिया. सुदामा के नेत्रो से भी अश्रुधार बह निकली कि तीनो लोको के स्वामी ने उनकी मित्रता को याद रखा.
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इसके बाद वे प्रेम पूर्वक सुदामा को भवन के अंदर ले गए और अपनी पत्नी रूक्मिणी से सुदामा को मिलवाया. राजप्रसाद का वैभव देखकर सुदामा ने अपने चावल की पोटली छुपा ली क्योंकि वह इस तुच्छ भेंट को देकर अपने मित्र को शर्मिंदा नहीं करना चाहते थे. कृष्ण ने उनको ऐसा करते देख लिया और चावल की पोटली उनसे ले ली. इसके बाद गर्व से रूक्मिणी को बताया कि उनका मित्र उनके लिए उपहार लाना नहीं भूला.
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कृष्ण ने चावल की पोटली खोली और उसे खाना शुरू कर दिया. तीसरे फांके बाद जैसे वे चौथा फांका लेने लगे तो रूक्मणी जी ने कान्हा का हाथ पकड़ लिया क्योंकि वे पहले ही तीन फांको के बदले सुदामा को तीनों लोकों का स्वामी बना चुके थे. भगवान कृष्ण और सुदामा की ऐसी मित्रता इतिहास के पन्नों में अमर हो गई.
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