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ओशो प्रवचन- ओशो और स्त्री का मनोविज्ञान

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस स्त्री से तुम बात कर रहे हो, अगर वह तुमसे प्रेम में पड़ने को राजी है, 

तो वह आगे की तरफ झुकी होकर तुमसे बात करेगी.

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अगर वह तुमसे राजी नहीं है, तो तुम्हें समझ जाना चाहिए, वह हमेशा पीछे की तरफ झुकी होगी. वह दीवाल खोजेगी; दीवाल से टिककर खड़ी हो जाएगी. वह यह कह रही है कि यहां दीवाल है.

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मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जो स्त्री तुमसे संभोग करने को उत्सुक होगी, वह हमेशा पैर खुले रखकर बैठेगी तुमसे बात करते वक्त. वह स्त्री को भी पता नहीं होगा. अगर वह संभोग करने को उत्सुक नहीं है, तो वह पैरों को एक-दूसरे के ऊपर रखकर बैठेगी. वह खबर दे रही है कि वह बंद है, तुम्हारे लिए खुली नहीं है. 

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इस पर हजारों प्रयोग हुए हैं और यह हर बार सही बात साबित हुई है. मनोवैज्ञानिक कहते हैं, तुम एक होटल में प्रवेश करते हो; एक स्त्री बैठी है, वह तुम्हें देखती है. अगर वह एक बार देखती है, तो तुममें उत्सुक नहीं है. एक बार तो आदमी औपचारिक रूप से देखते हैं, कोई भी घुसा, तो आदमी देखते हैं. लेकिन अगर स्त्री तुम्हें दुबारा देखे, तो वह उत्सुक है.

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और धीरे—धीरे जो डान जुआन तरह के लोग होते हैं, जो स्त्रियों के पीछे दौड़ते रहते हैं, वे कुशल हो जाते हैं इस भाषा को समझने में. वह स्त्री को पता ही नहीं कि उसने खुद उनको निमंत्रण दे दिया.

दुबारा अगर स्त्री देखे, तो वह तभी देखती है. पुरुष तो पचीस दफे देख सकता है स्त्री को. उसके देखने का कोई बहुत मूल्य नहीं है. वह तो ऐसे ही देख सकता है. कोई कारण भी न हो, तो भी, खाली बैठा हो, तो भी. 

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लेकिन स्त्री बहुत सुनियोजित है, वह तभी दुबारा देखती है, जब उसका रस हो. अन्यथा वह नहीं देखती. क्योंकि स्त्री को देखने में बहुत रस ही नहीं है.

स्त्रियां पुरुषों के शरीर को देखने में उत्सुक नहीं होती हैं. वह स्त्रियों का गुण नहीं है. स्त्रियों का रस अपने को दिखाने में है, देखने में नहीं है. 

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पुरुषों का रस देखने में है, दिखाने में नहीं है. यह बिलकुल ठीक है, तभी तो दोनों का मेल बैठ जाता है. आधी—आधी बीमारियां हैं उनके पास, दोनों मिलकर पूर्ण बीमारी बन जाते हैं.

मनोवैज्ञानिक कहते हैं, स्त्रियां एक्झीबीशनिस्ट हैं, प्रदर्शनवादी हैं. पुरुष वोयूर हैं, वे देखने में रस लेते हैं. इसलिए स्त्री दुबारा जब देखती है, तो इसका मतलब है कि वह इंगित कर रही है, संकेत दे रही है कि वह तैयार है, वह उत्सुक है, वह आगे बढ़ने को राजी है. तुम अगर तीन सेकेंड तक, मनोवैज्ञानिक कहते हैं, किसी स्त्री की तरफ देखो, तो वह नाराज नहीं होगी. 

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तीन सेकेंड! इससे ज्यादा देखा, तो बस वह नाराज हो जाएगी. तीन सेकेंड तक सीमा है, उस समय तक औपचारिक देखना चलता है. लेकिन तीन सेकेंड से ज्यादा देखा कि तुमने उन्हें घूरना शुरू कर दिया, लुच्चापन शुरू हो गया.

लुच्चे का मतलब होता है, घूरकर देखने वाला. लुच्चा शब्द बनता है लोचन से, आंख से. जो आंख गड़ाकर देखता है, वह लुच्चा. लुच्चे का और कोई बुरा मतलब नहीं होता. जरा आंख 
उनकी संयम में नहीं है, बस, इतना ही और कुछ नहीं.

शब्द का तो वही मतलब होता है, जो आलोचक का होता है. लुच्चे शब्द का वही अर्थ होता है, जो आलोचक का होता है. आलोचक भी घूरकर देखता है चीजों को. कवि कविता लिखता है, आलोचक कविता को घूरकर देखता है. वह लुच्चापन कर रहा है कविता के साथ.

गीता-दर्शन, ओशो

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