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ओशो प्रवचन- बकरा और स्वर्ग


बुद्ध एक गाँव से गुजरते थे. वहाँ एक वेदी पर एक बकरा काटा जा रहा था. बड़ा शोरगुल मच रहा था. बड़ी भीड़भाड़ थी. लोग बड़े आनंदित थे-इनको लोग धार्मिक कृत्य समझते रहे हैं. 

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बुद्ध ने पूछा काटने वाले से कि जरा एक मिनट, एक मिनट रुक जाओ, मुझे एक छोटी-सी बात का जवाब दे दो, इस बकरे को क्यों काटा जा रहा है? ब्राह्मण कुशल था, होशियार था-ब्राह्मण ही था, पंडित था—उसने कहा कि इसलिए काटा जा रहा है कि इस बकरे की आत्मा को स्वर्ग मिलेगा. धर्म में जो बलि जाता है, स्वर्ग जाता है.

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तो बुद्ध ने कहा-फिर तू आपने बाप को क्यों नहीं काटता? अपने को क्यों नहीं काटता? ला, तलवार दे, तेरी गर्दन उतारे देते हैं. तू अपने को ही काट ले, जब स्वर्ग जाने का इतना सरल उपाय है-और बकरा बेचारा जाना भी नहीं चाहता, वह कह रहा है कि मुझे नहीं जाना! जबर्दस्ती बकरे को स्वर्ग भेज रहा है! और तुझे जाना है.

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तो वह ब्राह्मण घबड़ाया. उसने सोचा नहीं था कि बात इस ढंग से हो जाएगी. बुद्धों के पास बातों के ढंग बदल जाते हैं. कुछ और उसे सूझा नहीं तो बुद्ध के चरणों में गिर पड़ा. बुद्ध ने कहा-यह अब कुछ मतलब की बात हुई. ऐसा ही तू अगर चरणों में गिरे परमात्मा के, परम सत्य के-चरणों में गिरने की बात है-तो सब हो जाएगा.

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आपे को काटना है. और यह काटना ऐसा है कि खून की एक बूँद भी नहीं गिरती. यह काटना ऐसा है कि वस्तुत: कुछ काटना नहीं पड़ता, आपा है ही नहीं, सिर्फ भ्रांति है. तुम हो कहाँ?

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तुमने सिर्फ एक भ्रांति बना ली है कि मैं हूँ. है तो परमात्मा ही, तुम तो सिर्फ उसी के सागर में एक तरंग हो; आज हो, कल नहीं हो जाओगे, कल नहीं थे, कल फिर नहीं हो जाओगे, सागर सदा है. मैं को जाने दो.

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