उसने कहा था
बड़े-बडे शहरो के इक्के-गाडी वालो की जबान के कोड़ो से जिनकी पीठ छिल गई हैं और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालो की बोली का मरहम लगावे. जबकि बड़े शहरो की चौड़ी सड़को पर घोडे की पीठ के चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी धोडे की नानी से अपना निकट यौन संबंध स्थिर करते है, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते है, कभी राह चलते पैदलो की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं , कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरो की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर मे उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियो मे हर एक लडढी वाले लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर , 'बचो खालसाजी', 'हटो भाईजी', 'ठहरना भाई', 'आने दो लालाजी', 'हटो बाछा' , कहते हुए सफेद फेटो , खच्चरो और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालो के जंगल से राह खेते हैं. क्या मजाल हैं कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े. यह बात नही कि उनकी जीभ चलती ही नही, चलती हैं पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई. यदि कोई बुढिया बार-बार चिटौनी देने पर भी लीक से नही हटती तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं -- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा , पुत्तां प्यारिए. बच जा स लम्बी वालिए. समष्टि मे इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योवाली है, पुत्रो को प्यारी हैं, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यो मेरे पहियो के नीचे आना चाहती हैं ? बच जा.
usne kaha tha book summary
ऐसे बम्बू कार्ट वालो के बीच मे होकर एक लडका और एक लडकी चौक की दुकान पर आ मिले. उसके बालो और इसके ठीले सुथने से जान पडता था कि दोनो सिख हैं. वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ. दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ो की गड्डी गिने बिना हटता न था.
'तेरा घर कहाँ हैं ?'
'मगरे मे - और तेरा?'
'माँझे मे, यहाँ कहाँ रहती हैं?'
'अतरसिंह की बैठक मे, वह मेरे मामा होते हैं.'
'मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बजार मे हैं.'
इतने मे दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा. सौदा लेकर दोनो साथ-साथ चले. कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा --
'तेरी कुडमाई हो गई ?' इस पर लड़की कुछ आँखे चढाकर 'धत्' कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया.
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात् दोनो मिल जाते. महीना भर यही हाल रहा. दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, 'तेरे कुडमाई हो गई?' और उत्तर में वही 'धत्' मिला. एक दिन जब फिर लडके ने वैसी ही हँसी मे चिढाने के लिए पूछा तो
लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली ,'हाँ, हो गयी.'
'कब?'
'कल, देखते नही यह रेशम से कढा हुआ सालू.' लड़की भाग गई.
लड़के ने घर की सीध ली. रास्ते मे एक लडके को मोरी मे ढकेल दिया, एक छावडी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले मे दूध उंडेल दिया. सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई. तब कहीं घर पहुँचा
'होश मे आओ। कयामत आयी हैं और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी हैं.'
'क्या?'
'लपटन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं. उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया हैं. सूबेदार मे इसका मुँह नही देखा. मैने देखा हैं, और बाते की हैं. सौहरा साफ उर्दू बोलता हैं, पर किताबी उर्दू. और मुझे पीने की सिगरेट दिया हैं.'
'तो अब?'
'अब मारे गये. धोखा हैं. सूबेदार कीचड़ मे चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उनपर खुले मे धावा होगा. उठो ,
एक काम करो. पलटन मे पैरो के निशान देखते देखते दौड़ जाओ. अभी बहुत दूर न गये होगे. सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें.
खंदक की बात झूठ हैं. चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ. पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो.'
'हुकुम तो यह है कि यहीं ---'
'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफसर हैं, उसका हुकुम हैं. मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ.'
'पर यहाँ तो तुम आठ ही हो.'
'आठ नही, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता हैं. चले जाओ.'
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया. उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले.
तीनो को जगह-जगह खंदक की दीवारो मे घुसेड़ दिया और तीनो मे एक तार सा बाँध दिया. तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे
सिगड़ी के पास रखा. बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने ---
बिजली की तरह दोनो हाथो से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहली पर तानकर दे मारा. धमाके के साथ साहब के
हाथ से दियासलाई गिर पड़ी. लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! मीन गाट्ट' कहते हुए चित हो गये.
लहनासिंह ने तीनो गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया. जेबो की तलाशी ली. तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हे अपनी जेब के हवाले किया.
साहब की मूर्च्छा हटी. लहना सिह हँसकर बोला -- 'क्यो, लपटन साहब , मिजाज कैसा हैं ? आज मैने बहुत बाते सीखी. यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं. यह सीखा कि जगाधरी के जिले मे नीलगाये होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते है. यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियो पर जल चढाते है और लपटन साहब खोते पर चढते हैं. पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन , साहब तो बिना 'डैम' के पाँच लफ़्ज भी नही बोला करते थे.'
लहनासिंह ने पतलून की जेबो की तलाशी नही ली थी. साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनो हाथ जेबो मे डाले.
लहनासिंह कहता गया -- 'चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा हैं. उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिए. तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव मे आया था. औरतो को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चो को दवाई देता था. चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं. वेद पढ़ पढ़ कर उसमे से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं. गौ को नही मारते. हिन्दुस्तान मे आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे. मंडी के बनियो को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है. डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था. मैने मुल्ला की दाढी मूँड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव मे अब पैर रखा तो --' साहब की जेब मे से पिस्तौल चला और लहना की जाँध मे गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरो ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी.
धडाका सुनकर सब दौड आये.
बोधा चिल्लाया -- 'क्या है ?'
लहनासिंह मे उसे तो यह कह कर सुला दिया कि 'एक हडका कुत्ता आया था , मार दिया' और औरो से सब हाल कह दिया. बंदूके लेकर सब तैयार हो गये. लहना ने साफा फाड़कर घाव के दोनो तरफ पट्टियाँ कसकर बाँधी. घाव माँस मे ही था. पट्टियो के कसने से लूह
बन्द हो गया.
इतने मे सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई मे घुस पड़े. सिखो की बंदूको की बाढ ने पहले धावे को रोका. दूसरे को रोका. पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक तककर मार रहा था -- वह खड़ा था औऱ लेटे हुए थे ) और वे सत्तर. अपने मुर्दा भाईयो के शरीर पर चढकर जर्मन आगे घुसे आते थे. थोड़े मिनटो से वे --- अचानक आवाज आयी -- 'वाह गुरुजी का फतह ! वाहगुरु दी का खालसा!' और धड़ाधड़ बंदूको के फायर जर्मनो की पीठ पर पड़ने लगे.
ऐन मौके पर जर्मन दो चक्को के पाटो के बीच मे आ गये. पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियो के संगीन चल रहे थे. पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया.
एक किलकारी और -- 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी. वाह गुरु जी दी फतह ! वाह गुरु जी दी खालसा ! सत्त सिरी अकाल पुरुष! ' और लड़ाई खतम हो गई. तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे. सिक्खो में पन्द्रह के प्राण गए. सूबेदार के दाहिने कन्धे मे से गोली आर पार निकल गयी. लहनासिंह की पसली मे एक गोली लगी. उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया. और बाकी का साफा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया. किसी को खबर नही हुई कि लहना के दूसरा घाव -- भारी घाव -- लगा हैं.
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था. ऐसा चाँद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियो का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है. और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा मे 'दंतवीणो पदेशाचार्य' कहलाती. वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की
भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौडा दौडा सूबेदार के पीछे गया था. सूबेदार लहनासिह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते.
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईवालो ने सुन ली थी. उन्होने पीछे टेलिफोन कर दिया था. वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चली , जो कोई डेढ घंटे के अन्दर अन्दर आ पहुँची. फील्ड अस्पताल नजदीक था. सुबह होते होते वहाँ पहुँच जायेगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँधकर एक गाडी मे घायल लिटाये गये और दूसरी मे लाशे रखी गयी. सूबेदार ने लहनासिह की जाँध मे पट्टी बँधवानी चाही. बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था. पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोडा घाव है, सवेरे देखा जायेगा. वह गाडी मे लिटाया गया. लहना को छोडकर सूबेदार जाते नही थे. यह देख लहना ने कहा -- तुम्हे बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द हैं तो इस गाड़ी मे न चले जाओ.
'और तुम?'
'मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाडी भेज देना. और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगी. मेरा हाल बुरा नही हैं. देखते नही मैं खड़ा
हूँ ? वजीरालसिंह मेरे पास है ही।'
'अच्छा, पर --'
'बोधा गाडी पर लेट गया. भला आप भी चढ आओ. सुनिए तो, सुबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना.
और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उन्होंने कहा था, वह मैने कर दिया.'
गाडियाँ चल पड़ी थी. सूबेदार ने चढते-चढते लहना का हाथ पकडकर कहा -- तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं. लिखना कैसा ?
साथ ही घर चलेंगे. अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना. उसने क्या कहा था ?
'अब आप गाड़ी पर चढ जाओ. मैने जो कहा वह लिख देना और कह भी देना.'
गाडी के जाते ही लहना लेट गया. 'वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे. तर हो रहा हैं.'
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है. जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं. सारे दृश्यो के रंग साफ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उनपर से हट जाती हैं.
लहनासिंह बारह वर्ष का हैं. अमृतसर मे मामा के यहाँ आया हुआ हैं. दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती हैं. जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई ? तब वह 'घत्' कहकर भाग जाती हैं. एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो
उसने कहा-- 'हाँ, कल हो गयी , देखते नही, यह रेशम के फूलों वाला सालू? ' यह सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ. क्रोध हुआ. क्यों हुआ ?
'वजीरासिंह पानी पिला दे.'
usne kaha tha lehna singh
पचीस वर्ष बीत गये. अब लहनासिंह नं. 77 राइफल्स मे जमादार हो गया हैं. उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नही. सात दिन की छुट्टी लेकर जमीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया. वहाँ रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली. फौरन चले आओ. साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना. साथ चलेंगे.
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था. लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे मे निकल कर आया. बोला -- 'लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती हैं. बुलाती हैं. जा मिल आ.'
लहनासिंह भीतर पहुँचा. सूबेदारनी मूझे जानती हैं? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों मे तो कभी सूबेदार का घर के लोग रहे नही. दरवाजे पर जाकर 'मत्था टेकना' कहा. असीम सुनी. लहनासिंह चुप।
'मुझे पहचाना ?'
'नहीं.'
'तेरी कुडमाई हो गयी ? --- घत् -- कल हो गयी -- देखते नही, रेशमी बूटो वाला सालू -- अमृतसर में --'
भावो की टकराहट से मूर्च्छा खुली. करवट बदली. पसली का घाव बह निकला.
'वजीरासिंह, पानी पिला' -- उसने कहा था.
स्वप्न चल रहा हैं. सूबेदारनी कह रही है -- 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया. एक काम कहती हूँ. मेरे तो भाग फूट गये. सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया हैं , लायलपुर मे जमीन दी हैं , आज नमकहलाली का मौका आया हैं. पर सरकार ने हम तीमियो की एक घँघरिया पलटन क्यो न बना दी जो मै भी सूबेदारजी के साथ चली जाती ? एक बेटा हैं. फौज मे भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ.
उसके पीछे चार और हुए , पर एक भी नही जिया.' सूबेदारनी रोने लगी --'अब दोनो जाते हैं. मेरे भाग! तुम्हे याद हैं, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड गया था. तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे. आप घोड़ो की लातो पर चले गये थे.
और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था. ऐसे ही इन दोनों को बचाना. यह मेरी भिक्षा हैं. तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ.'
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी मे चली गयी. लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया.
'वजीरासिंह, पानी पिला' -- उसने कहा था.
लहना का सिर अपनी गोद मे रखे वजीरासिंह बैठा हैं. जब माँगता हैं, तब पानी पिला देता है. आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा , फिर
बोला -- 'कौन ? कीरतसिंह?'
वजीरा ने कुछ समझकर कहा -- हाँ.
'भइया, मुझे और ऊँचा कर ले. अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले.'
वजीरा ने वैसा ही किया.
'हाँ, अब ठीक हैं. पानी पिला दे. बस. अब के हाड़ मे यह आम खूब फलेगा. चाचा-भतीजा दोने यहीँ बैठकर आम खाना. जितना बड़ा तेरा भतीजा हैं उतना ही बड़ा यह आम जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैने इसे लगाया था.'
वजीरासिंह के आँसू टप टप टपक रहे थे.
कुछ दिन पीछे लोगो ने अखबारो में पढ़ा --
फ्रांस और बेलजियम -- 67वीं सूची -- मैदान मे घावो से मरा -- न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह.
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उसने कहा था, चंद्रधर शर्मा गुलेरी का लिखा एक प्रेम वृतांत है जो बचपन में प्रस्फुटित हुआ और कथा के नायक लहनासिंह की मृत्यु पर समाप्त हुआ. यह एक निश्चल और निस्वार्थ प्रेम भावना की अनूठी कथा है जो आंखे नम कर देती है. कुछ दिनों की मित्रता में अंकुरित हुआ प्रेम का वृक्ष प्रौढ़ लहना सिंह को अपनी प्रेमिका सूबेदारनी जो कि विवाहित भी है, अपने जीवन से अधिक प्रिय हो गया.
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लहनासिंह— कथा का नायक
सूबेदारनी— कथा की नायिका
सूबेदार और बोध सिंह— सूबेदारनी के पति और बेटेसभी कहानियों की सूची के लिए क्लिक करें
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