अनाथ लड़की
- प्रेमचंद
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सेठ पुरुषोत्तमदास पूना की सरस्वती पाठशाला का मुआयना करने के बाद बाहर निकले तो एक लड़की ने दौड़कर
उनका दामन पकड़ लिया. सेठ जी रुक गये और मुहब्बत से उसकी तरफ देखकर पूछा—क्या नाम है?
लड़की ने जवाब दिया—रोहिणी.
सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोले—तुम्हें कुछ इनाम मिला?
लड़की ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गंभीरता से देखकर कहा—तुम चले जाते हो, मुझे रोना आता है, मुझे भी साथ लेते चलो.
सेठजी ने हँसकर कहा—मुझे बड़ी दूर जाना है, तुम कैसे चालोगी?
रोहिणी ने प्यार से उनकी गर्दन में हाथ डाल दिये और बोली—जहॉँ तुम जाओगे वहीं मैं भी चलूँगी. मैं तुम्हारी बेटी हूँगी.
मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साल भर हुआ नही रहा. मॉँ कपड़े सीती है, बड़ी मुश्किल से गुजर होती है.
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सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी. यह सुनकर उनकी आँखें भर आयीं. उस भोली प्रार्थना में वह दर्द था जो पत्थर-से दिल को पिघला सकता है. बेकसी और यतीमी को इससे ज्यादा दर्दनाक ढंग से जाहिर करना नामुमकिन था. उन्होंने सोचा—इस नन्हें-से दिल में न जाने क्या अरमान होंगे. और लड़कियॉँ अपने खिलौने दिखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने दिया है.
वह अपने बाप के साथ मदरसे आती होंगी, उसके साथ मेलों में जाती होंगी और उनकी दिलचस्पियों का जिक्र करती होंगी. यह सब बातें सुन-सुनकर इस भोली लड़की को भी ख्वाहिश होती होगी कि मेरे बाप होता. मॉँ की मुहब्बत में गहराई और आत्मिकता होती है जिसे बच्चे समझ नहीं सकते. बाप की मुहब्बत में खुशी और चाव होता है जिसे बच्चे खूब समझते हैं.
सेठ जी ने रोहिणी को प्यार से गले लगा लिया और बोले—अच्छा, मैं तुम्हें अपनी बेटी बनाऊँगा. लेकिन खूब जी लगाकर पढ़ना. अब छुट्टी का वक्त आ गया है, मेरे साथ आओ, तुम्हारे घर पहुँचा दूँ.
यह कहकर उन्होंने रोहिणी को अपनी मोटरकार में बिठा लिया. रोहिणी ने बड़े इत्मीनान और गर्व से अपनी सहेलियों की तरफ देखा. उसकी बड़ी-बड़ी आँखें खुशी से चमक रही थीं और चेहरा चॉँदनी रात की तरह खिला हुआ था.
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सेठ ने रोहिणी को बाजार की खूब सैर करायी और कुछ उसकी पसन्द से, कुछ अपनी पसन्द से बहुत-सी चीजें खरीदीं, यहॉँ तक कि रोहिणी बातें करते-करते कुछ थक-सी गयी और खामोश हो गई. उसने इतनी चीजें देखीं और इतनी बातें सुनीं कि उसका जी भर गया. शाम होते-होते रोहिणी के घर पहुँचे और मोटरकार से उतरकर रोहिणी को अब कुछ आराम मिला.
दरवाजा बन्द था. उसकी मॉँ किसी ग्राहक के घर कपड़े देने गयी थी. रोहिणी ने अपने तोहफों को उलटना-पलटना शुरू किया—खूबसूरत रबड़ के खिलौने, चीनी की गुड़िया जरा दबाने से चूँ-चूँ करने लगतीं और रोहिणी यह प्यारा संगीत सुनकर फूली न समाती थी. रेशमी कपड़े और रंग-बिरंगी साड़ियों की कई बण्डल थे लेकिन मखमली बूटे की गुलकारियों ने उसे खूब लुभाया था. उसे उन चीजों के पाने की जितनी खुशी थी, उससे ज्यादा उन्हें अपनी सहेलियों को दिखाने की बेचैनी थी. सुन्दरी के जूते अच्छे सही लेकिन उनमें ऐसे फूल कहॉँ हैं.
ऐसी गुड़िया उसने कभी देखी भी न होंगी. इन खयालों से उसके दिल में उमंग भर आयी और वह अपनी मोहिनी आवाज में एक गीत गाने लगी. सेठ जी दरवाजे पर खड़े इन पवित्र दृश्य का हार्दिक आनन्द उठा रहे थे. इतने में रोहिणी की मॉँ रुक्मिणी कपड़ों की एक पोटली लिये हुए आती दिखायी दी. रोहिणी ने खुशी से पागल होकर एक छलॉँग भरी और उसके पैरों से लिपट गयी. रुक्मिणी का चेहरा पीला था, आँखों में हसरत और बेकसी छिपी हुई थी, गुप्त चिंता का सजीव चित्र मालूम होती थी, जिसके लिए जिंदगी में कोई सहारा नहीं.
मगर रोहिणी को जब उसने गोद में उठाकर प्यार से चूमा तो जरा देर के लिए उसकी ऑंखों में उन्मीद और जिंदगी की झलक दिखायी दी. मुरझाया हुआ फूल खिल गया. बोली—आज तू इतनी देर तक कहॉँ रही, मैं तुझे ढूँढ़ने पाठशाला गयी थी.
रोहिणी ने हुमककर कहा—मैं मोटरकार पर बैठकर बाजार गयी थी. वहॉँ से बहुत अच्छी-अच्छी चीजें लायी हूँ. वह देखो कौन खड़ा है?
मॉँ ने सेठ जी की तरफ ताका और लजाकर सिर झुका लिया.
बरामदे में पहुँचते ही रोहिणी मॉँ की गोद से उतरकर सेठजी के पास गयी और अपनी मॉँ को यकीन दिलाने के लिए भोलेपन से बोली—क्यों, तुम मेरे बाप हो न?
सेठ जी ने उसे प्यार करके कहा—हॉँ, तुम मेरी प्यारी बेटी हो.
रोहिणी ने उनसे मुंह की तरफ याचना-भरी आँखों से देखकर कहा—अब तुम रोज यहीं रहा करोगे?
सेठ जी ने उसके बाल सुलझाकर जवाब दिया—मैं यहॉँ रहूँगा तो काम कौन करेगा? मैं कभी-कभी तुम्हें देखने आया करूँगा, लेकिन वहॉँ से तुम्हारे लिए अच्छी-अच्छी चीजें भेजूँगा.
रोहिणी कुछ उदास-सी हो गयी. इतने में उसकी मॉँ ने मकान का दरवाजा खोला ओर बड़ी फुर्ती से मैले बिछावन और फटे हुए कपड़े समेट कर कोने में डाल दिये कि कहीं सेठ जी की निगाह उन पर न पड़ जाए. यह स्वाभिमान स्त्रियों की खास अपनी चीज है.
रुक्मिणी अब इस सोच में पड़ी थी कि मैं इनकी क्या खातिर-तवाजो करूँ. उसने सेठ जी का नाम सुना था, उसका पति हमेशा उनकी बड़ाई किया करता था. वह उनकी दया और उदारता की चर्चाएँ अनेकों बार सुन चुकी थी. वह उन्हें अपने मन का देवता समझा करती थी, उसे क्या उमीद थी कि कभी उसका घर भी उसके कदमों से रोशन होगा.
लेकिन आज जब वह शुभ दिन संयोग से आया तो वह इस काबिल भी नहीं कि उन्हें बैठने के लिए एक मोढ़ा दे सके. घर में पान और इलायची भी नहीं. वह अपने आँसुओं को किसी तरह न रोक सकी.
आखिर जब अंधेरा हो गया और पास के ठाकुरद्वारे से घण्टों और नगाड़ों की आवाजें आने लगीं तो उन्होंने जरा ऊँची आवाज में कहा—बाईजी, अब मैं जाता हूँ. मुझे अभी यहॉँ बहुत काम करना है. मेरी रोहिणी को कोई तकलीफ न हो. मुझे जब मौका मिलेगा, उसे देखने आऊँगा. उसके पालने-पोसने का काम मेरा है और मैं उसे बहुत खुशी से पूरा करूँगा. उसके लिए अब तुम कोई फिक्र मत करो.
मैंने उसका वजीफा बॉँध दिया है और यह उसकी पहली किस्त है. यह कहकर उन्होंने अपना खूबसूरत बटुआ निकाला और रुक्मिणी के सामने रख दिया. गरीब औरत की आँखें में आँसू जारी थे. उसका जी बरबस चाहता था कि उसके पैरों को पकड़कर खूब रोये. आज बहुत दिनों के बाद एक सच्चे हमदर्द की आवाज उसके मन में आयी थी.
जब सेठ जी चले तो उसने दोनों हाथों से प्रणाम किया. उसके हृदय की गहराइयों से प्रार्थना निकली—आपने एक बेबस पर दया की है, ईश्वर आपको इसका बदला दे.
दूसरे दिन रोहिणी पाठशाला गई तो उसकी बॉँकी सज-धज आँखों में खुबी जाती थी. उस्तानियों ने उसे बारी-बारी प्यार किया और उसकी सहेलियॉँ उसकी एक-एक चीज को आश्चर्य से देखती और ललचाती थी. अच्छे कपड़ों से कुछ स्वाभिमान का अनुभव होता है. आज रोहिणी वह गरीब लड़की न रही जो दूसरों की तरफ विवश नेत्रों से देखा करती थी.
आज उसकी एक-एक क्रिया से शैशवोचित गर्व और चंचलता टपकती थी और उसकी जबान एक दम के लिए भी न रुकती थी. कभी मोटर की तेजी का जिक्र था कभी बाजार की दिलचस्पियों का बयान, कभी अपनी गुड़ियों के कुशल-मंगल की चर्चा थी और कभी अपने बाप की मुहब्बत की दास्तान. दिल था कि उमंगों से भरा हुआ था. एक महीने बाद सेठ पुरुषोत्तमदास ने रोहिणी के लिए फिर तोहफे और रुपये रवाना किये.
बेचारी विधवा को उनकी कृपा से जीविका की चिन्ता से छुट्टी मिली. वह भी रोहिणी के साथ पाठशाला आती और दोनों मॉँ-बेटियॉँ एक ही दरजे के साथ-साथ पढ़तीं, लेकिन रोहिणी का नम्बर हमेशा मॉँ से अव्वल रहा सेठ जी जब पूना की तरफ से निकलते तो रोहिणी को देखने जरूर आते और उनका आगमन उसकी प्रसन्नता और मनोरंजन के लिए महीनों का सामान इकट्ठा कर देता.
इसी तरह कई साल गुजर गये और रोहिणी ने जवानी के सुहाने हरे-भरे मैदान में पैर रक्खा, जबकि बचपन की भोली-भाली अदाओं में एक खास मतलब और इरादों का दखल हो जाता है.
रोहिणी अब आन्तरिक और बाह्य सौन्दर्य में अपनी पाठशाला की नाक थी. हाव-भाव में आकर्षक गम्भीरता, बातों में गीत का-सा खिंचाव और गीत का-सा आत्मिक रस था. कपड़ों में रंगीन सादगी, आँखों में लाज-संकोच, विचारों में पवित्रता. जवानी थी मगर घमण्ड और बनावट और चंचलता से मुक्त. उसमें एक एकाग्रता थी ऊँचे इरादों से पैदा होती है. स्त्रियोचित उत्कर्ष की मंजिलें वह धीरे-धीरे तय करती चली जाती थी.
सेठ जी के बड़े बेटे नरोत्तमदास कई साल तक अमेरिका और जर्मनी की युनिवर्सिटियों की खाक छानने के बाद इंजीनियरिंग विभाग में कमाल हासिल करके वापस आए थे. अमेरिका के सबसे प्रतिष्ठित कालेज में उन्होंने सम्मान का पद प्राप्त किया था. अमेरिका के अखबार एक हिन्दोस्तानी नौजवान की इस शानदार कामयाबी पर चकित थे.
उन्हीं का स्वागत करने के लिए बम्बई में एक बड़ा जलसा किया गया था. इस उत्सव में शरीक होने के लिए लोग दूर-दूर से आए थे. सरस्वती पाठशाला को भी निमंत्रण मिला और रोहिणी को सेठानी जी ने विशेष रूप से आमंत्रित किया. पाठशाला में हफ्तों तैयारियॉँ हुई. रोहिणी को एक दम के लिए भी चैन न था. यह पहला मौका था कि उसने अपने लिए बहुत अच्छे-अच्छे कपड़े बनवाये. रंगों के चुनाव में वह मिठास थी, काट-छॉँट में वह फबन जिससे उसकी सुन्दरता चमक उठी. सेठानी कौशल्या देवी उसे लेने के लिए रेलवे स्टेशन पर मौजूद थीं.
रोहिणी गाड़ी से उतरते ही उनके पैरों की तरफ झुकी लेकिन उन्होंने उसे छाती से लगा लिया और इस तरह प्यार किया कि जैसे वह उनकी बेटी है. वह उसे बार-बार देखती थीं और आँखों से गर्व और प्रेम टपक पड़ता था.
इस जलसे के लिए ठीक समुन्दर के किनारे एक हरे-भरे सुहाने मैदान में एक लम्बा-चौड़ा शामियाना लगाया गया था. एक तरफ आदमियों का समुद्र उमड़ा हुआ था दूसरी तरफ समुद्र की लहरें उमड़ रही थीं, गोया वह भी इस खुशी में शरीक थीं.
जब उपस्थित लोगों ने रोहिणी बाई के आने की खबर सुनी तो हजारों आदमी उसे देखने के लिए खड़े हो गए. यही तो वह लड़की है. जिसने अबकी शास्त्री की परीक्षा पास की है. जरा उसके दर्शन करने चाहिये. अब भी इस देश की स्त्रियों में ऐसे रतन मौजूद हैं. भोले-भाले देशप्रेमियों में इस तरह की बातें होने लगीं. शहर की कई प्रतिष्ठित महिलाओं ने आकर रोहिणी को गले लगाया और आपस में उसके सौन्दर्य और उसके कपड़ों की चर्चा होने लगी.
आखिर मिस्टर पुरुषोत्तमदास तशरीफ लाए. हालॉँकि वह बड़ा शिष्ट और गम्भीर उत्सव था लेकिन उस वक्त दर्शन की उत्कंठा पागलपन की हद तक जा पहुँची थी. एक भगदड़-सी मच गई. कुर्सियों की कतारे गड़बड़ हो गईं. कोई कुर्सी पर खड़ा हुआ, कोई उसके हत्थों पर. कुछ मनचले लोगों ने शामियाने की रस्सियॉँ पकड़ीं और उन पर जा लटके कई मिनट तक यही तूफान मचा रहा. कहीं कुर्सियां टूटीं, कहीं कुर्सियॉँ उलटीं, कोई किसी के ऊपर गिरा, कोई नीचे. ज्यादा तेज लोगों में धौल-धप्पा होने लगा.
तब बीन की सुहानी आवाजें आने लगीं. रोहिणी ने अपनी मण्डली के साथ देशप्रेम में डूबा हुआ गीत शुरू किया. सारे उपस्थित लोग बिलकुल शान्त थे और उस समय वह सुरीला राग, उसकी कोमलता और स्वच्छता, उसकी प्रभावशाली मधुरता, उसकी उत्साह भरी वाणी दिलों पर वह नशा-सा पैदा कर रही थी जिससे प्रेम की लहरें उठती हैं, जो दिल से बुराइयों को मिटाता है और उससे जिन्दगी की हमेशा याद रहने वाली यादगारें पैदा हो जाती हैं. गीत बन्द होने पर तारीफ की एक आवाज न आई. वहीं ताने कानों में अब तक गूँज रही थीं.
गाने के बाद विभिन्न संस्थाओं की तरफ से अभिनन्दन पेश हुए और तब नरोत्तमदास लोगों को धन्यवाद देने के लिए खड़े हुए. लेकिन उनके भाषाण से लोगों को थोड़ी निराशा हुई. यों दोस्तो की मण्डली में उनकी वक्तृता के आवेग और प्रवाह की कोई सीमा न थी लेकिन सार्वजनिक सभा के सामने खड़े होते ही शब्द और विचार दोनों ही उनसे बेवफाई कर जाते थे. उन्होंने बड़ी-बड़ी मुश्किल से धन्यवाद के कुछ शब्द कहे और तब अपनी योग्यता की लज्जित स्वीकृति के साथ अपनी जगह पर आ बैठे. कितने ही लोग उनकी योग्यता पर ज्ञानियों की तरह सिर हिलाने लगे.
अब जलसा खत्म होने का वक्त आया. वह रेशमी हार जो सरस्वती पाठशाला की ओर से भेजा गया था, मेज पर रखा हुआ था. उसे हीरो के गले में कौन डाले? प्रेसिडेण्ट ने महिलाओं की पंक्ति की ओर नजर दौड़ाई. चुनने वाली आँख रोहिणी पर पड़ी और ठहर गई. उसकी छाती धड़कने लगी. लेकिन उत्सव के सभापति के आदेश का पालन आवश्यक था. वह सर झुकाये हुए मेज के पास आयी और कॉँपते हाथों से हार को उठा लिया. एक क्षण के लिए दोनों की आँखें मिलीं और रोहिणी ने नरोत्तमदास के गले में हार डाल दिया.
दूसरे दिन सरस्वती पाठशाला के मेहमान विदा हुए लेकिन कौशल्या देवी ने रोहिणी को न जाने दिया. बोली—अभी तुम्हें देखने से जी नहीं भरा, तुम्हें यहॉँ एक हफ्ता रहना होगा. आखिर मैं भी तो तुम्हारी मॉँ हूँ. एक मॉँ से इतना प्यार और दूसरी मॉँ से इतना अलगाव!
रोहिणी कुछ जवाब न दे सकी.
यह सारा हफ्ता कौशल्या देवी ने उसकी विदाई की तैयारियों में खर्च किया. सातवें दिन उसे विदा करने के लिए स्टेशन तक आयीं. चलते वक्त उससे गले मिलीं और बहुत कोशिश करने पर भी आँसुओं को न रोक सकीं. नरोत्तमदास भी आये थे. उनका चेहरा उदास था. कौशल्या ने उनकी तरफ सहानुभूतिपूर्ण आँखों से देखकर कहा—मुझे यह तो ख्याल ही न रहा, रोहिणी क्या यहॉँ से पूना तक अकेली जायेगी? क्या हर्ज है, तुम्हीं चले जाओ, शाम की गाड़ी से लौट आना.
नरोत्तमदास के चेहरे पर खुशी की लहर दौड़ गयी, जो इन शब्दों में न छिप सकी—अच्छा, मैं ही चला जाऊँगा. वह इस फिक्र में थे कि देखें बिदाई की बातचीत का मौका भी मिलता है या नहीं. अब वह खूब जी भरकर अपना दर्दे दिल सुनायेंगे और मुमकिन हुआ तो उस लाज-संकोच को, जो उदासीनता के परदे में छिपी हुई है, मिटा देंगे.
रुक्मिणी को अब रोहिणी की शादी की फिक्र पैदा हुई. पड़ोस की औरतों में इसकी चर्चा होने लगी थी. लड़की इतनी सयानी हो गयी है, अब क्या बुढ़ापे में ब्याह होगा? कई जगह से बात आयी, उनमें कुछ बड़े प्रतिष्ठित घराने थे. लेकिन जब रुक्मिणी उन पैमानों को सेठजी के पास भेजती तो वे यही जवाब देते कि मैं खुद फिक्र में हूँ. रुक्मिणी को उनकी यह टाल-मटोल बुरी मालूम होती थी.
रोहिणी को बम्बई से लौटे महीना भर हो चुका था. एक दिन वह पाठशाला से लौटी तो उसे अम्मा की चारपाई पर एक खत पड़ा हुआ मिला. रोहिणी पढ़ने लगी, लिखा था—बहन, जब से मैंने तुम्हारी लड़की को बम्बई में देखा है, मैं उस पर रीझ गई हूँ. अब उसके बगैर मुझे चैन नहीं है. क्या मेरा ऐसा भाग्य होगा कि वह मेरी बहू बन सके?
मैं गरीब हूँ लेकिन मैंने सेठ जी को राजी कर लिया है. तुम भी मेरी यह विनती कबूल करो. मैं तुम्हारी लड़की को चाहे फूलों की सेज पर न सुला सकूँ, लेकिन इस घर का एक-एक आदमी उसे आँखों की पुतली बनाकर रखेगा. अब रहा लड़का. मॉँ के मुँह से लड़के का बखान कुछ अच्छा नहीं मालूम होता. लेकिन यह कह सकती हूँ कि परमात्मा ने यह जोड़ी अपनी हाथों बनायी है. सूरत में, स्वभाव में, विद्या में, हर दृष्टि से वह रोहिणी के योग्य है. तुम जैसे चाहे अपना इत्मीनान कर सकती हो. जवाब जल्द देना और ज्यादा क्या लिखूँ. नीचे थोड़े-से शब्दों में सेठजी ने उस पैगाम की सिफारिश की थी.
रोहिणी गालों पर हाथ रखकर सोचने लगी. नरोत्तमदास की तस्वीर उसकी आँखों के सामने आ खड़ी हुई. उनकी वह प्रेम की बातें, जिनका सिलसिला बम्बई से पूना तक नहीं टूटा था, कानों में गूंजने लगीं. उसने एक ठण्डी सॉँस ली और उदास होकर चारपाई पर लेट गई.
सरस्वती पाठशाला में एक बार फिर सजावट और सफाई के दृश्य दिखाई दे रहे हैं. आज रोहिणी की शादी का शुभ दिन. शाम का वक्त, बसन्त का सुहाना मौसम. पाठशाला के दारो-दीवार मुस्करा रहे हैं और हरा-भरा बगीचा फूला नहीं समाता.
चन्द्रमा अपनी बारात लेकर पूरब की तरफ से निकला. उसी वक्त मंगलाचरण का सुहाना राग उस रूपहली चॉँदनी और हल्के-हल्के हवा के झोकों में लहरें मारने लगा. दूल्हा आया, उसे देखते ही लोग हैरत में आ गए. यह नरोत्तमदास थे. दूल्हा मण्डप के नीचे गया. रोहिणी की मॉँ अपने को रोक न सकी, उसी वक्त जाकर सेठ जी के पैर पर गिर पड़ी. रोहिणी की आँखों से प्रेम और आनन्द के आँसू बहने लगे.
मण्डप के नीचे हवन-कुण्ड बना था. हवन शुरू हुआ, खुशबू की लपेटें हवा में उठीं और सारा मैदान महक गया. लोगों के दिलो-दिमाग में ताजगी की उमंग पैदा हुई.
फिर संस्कार की बारी आई. दूल्हा और दुल्हन ने आपस में हमदर्दी; जिम्मेदारी और वफादारी के पवित्र शब्द अपनी जबानों से कहे. विवाह की वह मुबारक जंजीर गले में पड़ी जिसमें वजन है, सख्ती है, पाबन्दियॉँ हैं लेकिन वजन के साथ सुख और पाबन्दियों के साथ विश्वास है. दोनों दिलों में उस वक्त एक नयी, बलवान, आत्मिक शक्ति की अनुभूति हो रही थी.
जब शादी की रस्में खत्म हो गयीं तो नाच-गाने की मजलिस का दौर आया. मोहक गीत गूँजने लगे. सेठ जी थककर चूर हो गए थे. जरा दम लेने के लिए बागीचे में जाकर एक बेंच पर बैठ गये. ठण्डी-ठण्डी हवा आ रही आ रही थी. एक नशा-सा पैदा करने वाली शान्ति चारों तरफ छायी हुई थी. उसी वक्त रोहिणी उनके पास आयी और उनके पैरों से लिपट गयी. सेठ जी ने उसे उठाकर गले से लगा लिया और हँसकर बोले—क्यों, अब तो तुम मेरी अपनी बेटी हो गयीं?
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