अपनी करनी
- प्रेमचंद
premchand ki kahani, premchand stories in hindi, premchand hindi story, munshi premchand stories, premchand story in hindi
आह, अभागा मैं! मेरे कर्मो के फल ने आज यह दिन दिखाये कि अपमान भी मेरे ऊपर हंसता है. और यह सब मैंने अपने हाथों किया. शैतान के सिर इलजाम क्यों दूं, किस्मत को खरी-खोटी क्यों सुनाऊँ, होनी का क्यों रोऊं? जों कुछ किया मैंने जानते और बूझते हुए किया. अभी एक साल गुजरा जब मैं भाग्यशाली था, प्रतिष्ठित था और समृद्धि मेरी चेरी थी.
दुनिया की नेमतें मेरे सामने हाथ बांधे खड़ी थीं लेकिन आज बदनामी और कंगाली और शंर्मिदगी मेरी दुर्दशा पर आंसू बहाती है. मैं ऊंचे खानदान का, बहुत पढ़ा-लिखा आदमी था, फारसी का मुल्ला, संस्कृत का पंण्डित, अंगेजी का ग्रेजुएट. अपने मुंह मियां मिट्ठू क्यों बनूं लेकिन रुप भी मुझको मिला था, इतना कि दूसरे मुझसे ईर्ष्या कर सकते थे.
story of premchand, premchand short stories, munsi premchand, munshi premchand story, godan premchand, premchand books, premchand ki kahaniya, about premchand, munshi premchand stories in hindi, stories of premchand
ग़रज एक इंसान को खुशी के साथ जिंदगी बसर करने के लिए जितनी अच्छी चीजों की जरुरत हो सकती है वह सब मुझे हासिल थीं. सेहत का यह हाल कि मुझे कभी सरदर्द की भी शिकायत नहीं हुई. फ़िटन की सैर, दरिया की दिलफ़रेबियां, पहाड़ के सुंदर दृश्य –उन खुशियों का जिक्र ही तकलीफ़देह है. क्या मजे की जिंदगी थी!
आह, यहॉँ तक तो अपना दर्देदिल सुना सकता हूँ लेकिन इसके आगे फिर होंठों पर खामोशी की मुहर लगी हुई है. एक सती-साध्वी, प्रतिप्राणा स्त्री और दो गुलाब के फूल-से बच्चे इंसान के लिए जिन खुशियों, आरजुओं, हौसलों और दिलफ़रेबियों का खजाना हो सकते हैं वह सब मुझे प्राप्त था.
premchand biography in hindi, premchand wikipedia premchand ke fate jute, munshi premchand ka jeevan parichay
मैं इस योग्य नहीं कि उस पतित्र स्त्री का नाम जबान पर लाऊँ. मैं इस योग्य नहीं कि अपने को उन लड़कों का बाप कह सकूं. मगर नसीब का कुछ ऐसा खेल था कि मैंने उन बिहिश्ती नेमतों की कद्र न की. जिस औरत ने मेरे हुक्म और अपनी इच्छा में कभी कोई भेद नहीं किया, जो मेरी सारी बुराइयों के बावजूद कभी शिकायत का एक हर्फ़ ज़बान पर नहीं लायी, जिसका गुस्सा कभी आंखो से आगे नहीं बढ़ने पाया-गुस्सा क्या था कुआर की बरखा थी, दो-चार हलकी-हलकी बूंदें पड़ी और फिर आसमान साफ़ हो गया—अपनी दीवानगी के नशे में मैंने उस देवी की कद्र न की.
मैने उसे जलाया, रुलाया, तड़पाया. मैंने उसके साथ दग़ा की. आह! जब मैं दो-दो बजे रात को घर लौटता था तो मुझे कैसे-कैसे बहाने सूझते थे, नित नये हीले गढ़ता था, शायद विद्यार्थी जीवन में जब बैण्ड के मजे से मदरसे जाने की इजाज़त न देते थे, उस वक्त भी बुद्धि इतनी प्रखर न थी. और क्या उस क्षमा की देवी को मेरी बातों पर यक़ीन आता था? वह भोली थी मगर ऐसी नादान न थी. मेरी खुमार-भरी आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे प्रेम-प्रदर्शन का रहस्य क्या उससे छिपा रह सकता था?
biography of munshi premchand, munshi premchand college siliguri, premchand ki jivani
लेकिन उसकी रग-रग में शराफत भरी हुई थी, कोई कमीना ख़याल उसकी जबान पर नहीं आ सकता था. वह उन बातों का जिक्र करके या अपने संदेहों को खुले आम दिखलाकर हमारे पवित्र संबंध में खिचाव या बदमज़गी पैदा करना बहुत अनुचित समझती थी. मुझे उसके विचार, उसके माथे पर लिखे मालूम होते थे. उन बदमज़गियों के मुकाबले में उसे जलना और रोना ज्यादा पसंद था, शायद वह समझती थी कि मेरा नशा खुद-ब-खुद उतर जाएगा. काश, इस शराफत के बदले उसके स्वभाव में कुछ ओछापन और अनुदारता भी होती.
काश, वह अपने अधिकारों को अपने हाथ में रखना जानती. काश, वह इतनी सीधी न होती. काश, अव अपने मन के भावों को छिपाने में इतनी कुशल न होती. काश, वह इतनी मक्कार न होती. लेकिन मेरी मक्कारी और उसकी मक्कारी में कितना अंतर था, मेरी मक्कारी हरामकारी थी, उसकी मक्कारी आत्मबलिदानी.
एक रोज मैं अपने काम से फुसरत पाकर शाम के वक्त़ मनोरंजन के लिए आनंदवाटिका मे पहुँचा और संगमरमर के हौज पर बैठकर मछलियों का तमाशा देखने लगा. एकाएक निगाह ऊपर उठी तो मैंने एक औरत का बेले की झाड़ियों में फूल चुनते देखा. उसके कपड़े मैले थे और जवानी की ताजगी और गर्व को छोड़कर उसके चेहरे में कोई ऐसी खास बात न थीं उसने मेरी तरफ आंखे उठायीं और फिर फूल चुनने में लग गयी गोया उसने कुछ देखा ही नहीं.
उसके इस अंदाज ने, चाहे वह उसकी सरलता ही क्यों न रही हो, मेरी वासना को और भी उद्दीप्त कर दिया. मेरे लिए यह एक नयी बात थी कि कोई औरत इस तरह देखे कि जैसे उसने नहीं देखा. मैं उठा और धीरे-धीरे, कभी जमीन और कभी आसमान की तरफ ताकते हुए बेले की झाड़ियों के पास जाकर खुद भी फूल चुनने लगा. इस ढिठाई का नतीजा यह हुआ कि वह मालिन की लड़की वहां से तेजी के साथ बाग के दूसरे हिस्से में चली गयी.
उस दिन से मालूम नहीं वह कौन-सा आकर्षण था जो मुझे रोज शाम के वक्त आनंदवाटिका की तरफ खींच ले जाता. उसे मुहब्बत हरगिज नहीं कह सकते. अगर मुझे उस वक्त भगवान् न करें, उस लड़की के बारे में कोई, शोक-समाचार मिलता तो शायद मेरी आंखों से आंसू भी न निकले, जोगिया धारण करने की तो चर्चा ही व्यर्थ है.
मैं रोज जाता और नये-नये रुप धरकर जाता लेकिन जिस प्रकृति ने मुझे अच्छा रुप-रंग दिया था उसी ने मुझे वाचालता से वंचित भी कर रखा था. मैं रोज जाता और रोज लौट जाता, प्रेम की मंजिल में एक क़दम भी आगे न बढ़ पाता था. हां, इतना अलबत्ता हो गया कि उसे वह पहली-सी झिझक न रही.
आखिर इस शांतिपूर्ण नीति को सफल बनाने न होते देख मैंने एक नयी युक्ति सोची. एक रोज मैं अपने साथ अपने शैतान बुलडाग टामी को भी लेता गया. जब शाम हो गयी और वह मेरे धैर्य का नाश करने वाली फूलों से आंचल भरकर अपने घर की ओर चली तो मैंने अपने बुलडाग को धीरे से इशारा कर दिया.
बुलडाग उसकी तरफ़ बाज की तरफ झपटा, फूलमती ने एक चीख मारी, दो-चार कदम दौड़ी और जमीन पर गिर पड़ी. अब मैं छड़ी हिलाता, बुलडाग की तरफ गुस्से-भरी आंखों से देखता और हांय-हांय चिल्लाता हुआ दौड़ा और उसे जोर से दो-तीन डंडे लगाये. फिर मैंने बिखरे हुए फूलों को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ पकड़कर बिठा दिया और बहुत लज्जित और दुखी भाव से बोला—यह कितना बड़ा बदमाश है, अब इसे अपने साथ कभी नहीं लाऊंगा. तुम्हें इसने काट तो नहीं लिया?
फूलमती ने चादर से सर को ढ़ांकते हुए कहा—तुम न आ जाते तो वह मुझे नोच डालता. मेरे तो जैसे मन-मन-भर में पैर हो गये थे. मेरा कलेजा तो अभी तक धड़क रहा है.
यह तीर लक्ष्य पर बैठा, खामोशी की मुहर टूट गयी, बातचीत का सिलसिला क़ायम हुआ. बांध में एक दरार हो जाने की देर थी, फिर तो मन की उमंगो ने खुद-ब-खुद काम करना शुरु किया. मैने जैसे-जैसे जाल फैलाये, जैसे-जैसे स्वांग रचे, वह रंगीन तबियत के लोग खूब जानते हैं.
और यह सब क्यों? मुहब्बत से नहीं, सिर्फ जरा देर दिल को खुश करने के लिए, सिर्फ उसके भरे-पूरे शरीर और भोलेपन पर रीझकर. यों मैं बहुत नीच प्रकृति का आदमी नहीं हूँ. रूप-रंग में फूलमती का इंदु से मुकाबला न था. वह सुंदरता के सांचे में ढली हुई थी. कवियों ने सौंदर्य की जो कसौटियां बनायी हैं वह सब वहां दिखायी देती थीं लेकिन पता नहीं क्यों मैंने फूलमती की धंसी हुई आंखों और फूले हुए गालों और मोटे-मोटे होठों की तरफ अपने दिल का ज्यादा खिंचाव देखा.
आना-जाना बढ़ा और महीना-भर भी गुजरने न पाया कि मैं उसकी मुहब्बत के जाल में पूरी तरह फंस गया. मुझे अब घर की सादा जिंदगी में कोई आनंद न आता था. लेकिन दिल ज्यों-ज्यों घर से उचटता जाता था त्यों-त्यों मैं पत्नी के प्रति प्रेम का प्रदर्शन और भी अधिक करता था. मैं उसकी फ़रमाइशों का इंतजार करता रहता और कभी उसका दिल दुखानेवाली कोई बात मेरी जबान पर न आती. शायद मैं अपनी आंतरिक उदासीनता को शिष्टाचार के पर्दे के पीछे छिपाना चाहता था.
धीरे-धीरे दिल की यह कैफ़ियत भी बदल गयी और बीवी की तरफ से उदासीनता दिखायी देने लगी. घर में कपड़े नहीं है लेकिन मुझसे इतना न होता कि पूछ लूं. सच यह है कि मुझे अब उसकी खातिरदारी करते हुए एक डर-सा मालूम होता था कि कहीं उसकीं खामोशी की दीवार टूट न जाय और उसके मन के भाव जबान पर न आ जायं.
यहां तक कि मैंने गिरस्ती की जरुरतों की तरफ से भी आंखे बंद कर लीं. अब मेरा दिल और जान और रुपया-पैसा सब फूलमती के लिए था. मैं खुद कभी सुनार की दुकान पर न गया था लेकिन आजकल कोई मुझे रात गए एक मशहूर सुनार के मकान पर बैठा हुआ देख सकता था. बजाज की दुकान में भी मुझे रुचि हो गयी.
एक रोज शाम के वक्त रोज की तरह मैं आनंदवाटिका में सैर कर रहा था और फूलमती सोहलों सिंगार किए, मेरी सुनहरी-रुपहली भेंटो से लदी हुई, एक रेशमी साड़ी पहने बाग की क्यारियों में फूल तोड़ रही थी, बल्कि यों कहो कि अपनी चुटकिंयो मे मेरे दिल को मसल रही थी. उसकी छोटी-छोटी आंखे उस वक्त नशे के हुस्न में फैल गयी ,थीं और उनमें शोखी और मुस्कराहट की झलक नज़र आती थी.
अचानक महाराजा साहब भी अपने कुछ दोस्तों के साथ मोटर पर सवार आ पहुँचे. मैं उन्हें देखते ही अगवानी के लिए दौड़ा और आदाब बजा लाया. बेचारी फूलमती महाराजा साहब को पहचानती थी लेकिन उसे एक घने कुंज के अलावा और कोई छिपने की जगह न मिल सकी. महाराजा साहब चले तो हौज की तरफ़ लेकिन मेरा दुर्भाग्य उन्हें क्यारी पर ले चला जिधर फूलमती छिपी हुई थर-थर कांप रही थी.
महाराजा साहब ने उसकी तरफ़ आश्चर्य से देखा और बोले—यह कौन औरत है? सब लोग मेरी ओर प्रश्न-भरी आंखों से देखने लगे और मुझे भी उस वक्त यही ठीक मालूम हुआ कि इसका जवाब मैं ही दूं वर्ना फूलमती न जाने क्या आफत ढ़ा दे.
लापरवाही के अंदाज से बोला—इसी बाग के माली की लड़की है, यहां फूल तोड़ने आयी होगी. फूलमती लज्जा और भय के मारे जमीन में धंसी जाती थी. महाराजा साहब ने उसे सर से पांव तक गौर से देखा और तब संदेहशील भाव से मेरी तरफ देखकर बोले—यह माली की लड़की है?
मैं इसका क्या जवाब देता. इसी बीच कम्बख्त दुर्ज़न माली भी अपनी फटी हुई पाग संभालता, हाथ मे कुदाल लिए हुए दौड़ता हुआ आया और सर को घुटनों से मिलाकर महाराज को प्रणाम किया महाराजा ने जरा तेज लहजे में पूछा—यह तेरी लड़की हैं?
माली के होश उड़ गए, कांपता हुआ बोला--हुजूर.
महाराज—तेरी तनख्वाह क्या है?
दुर्जन—हुजूर, पांच रुपये.
महाराज—यह लड़की कुंवारी है या ब्याही?
दुर्जन—हुजूर, अभी कुंवारी है
महाराज ने गुस्से में कहा—या तो तू चोरी करता है या डाका मारता है वर्ना यह कभी नहीं हो सकता कि तेरी लड़की अमीरजादी बनकर रह सके. मुझे इसी वक्त इसका जवाब देना होगा वर्ना मैं तुझे पुलिस के सुपुर्द कर दूँगा. ऐसे चाल-चलन के आदमी को मैं अपने यहां नहीं रख सकता.
माली की तो घिग्घी बंध गयी और मेरी यह हालत थी कि काटो तो बदन में लहू नहीं. दुनिया अंधेरी मालूम होती थी. मैं समझ गया कि आज मेरी शामत सर पर सवार है. वह मुझे जड़ से उखाड़कर दम लेगी. महाराजा साहब ने माली को जोर से डांटकर पूछा—तू खामोश क्यों है, बोलता क्यों नहीं?
दुर्जन फूट-फटकर रोने लगा. जब ज़रा आवाज सुधरी तो बोला—हुजूर, बाप-दादे से सरकार का नमक खाता हूँ, अब मेरे बुढ़ापे पर दया कीजिए, यह सब मेरे फूटे नसीबों का फेर है धर्मावतार.
इस छोकरी ने मेरी नाक कटा दी, कुल का नाम मिटा दिया. अब मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं हूँ, इसको सब तरह से समझा-बुझाकर हार गए हुजूर, लेकिन मेरी बात सुनती ही नहीं तो क्या करूं. हुजूर माई-बाप हैं, आपसे क्या पर्दा करूं, उसे अब अमीरों के साथ रहना अच्छा लगता है और आजकल के रईसों और अमींरों को क्या कहूँ, दीनबंधु सब जानते हैं.
महाराजा साहब ने जरा देर गौर करके पूछा—क्या उसका किसी सरकारी नौकर से संबंध है?
दुर्जन ने सर झुकाकर कहा—हुजूर.
महाराज साहब—वह कौन आदमी है, तुम्हे उसे बतलाना होगा.
दुर्जन—महाराज जब पूछेंगे बता दूंगा, सांच को आंच क्या.
मैंने तो समझा था कि इसी वक्त सारा पर्दाफास हुआ जाता है लेकिन महाराजा साहब ने अपने दरबार के किसी मुलाजिम की इज्जत को इस तरह मिट्टी में मिलाना ठीक नहीं समझा. वे वहां से टहलते हुए मोटर पर बैठकर महल की तरफ चले.
इस मनहूस वाक़ये के एक हफ्ते बाद एक रोज मैं दरबार से लौटा तो मुझे अपने घर में से एक बूढ़ी औरत बाहर निकलती हुई दिखाई दी. उसे देखकर मैं ठिठका. उसे चेहरे पर बनावटी भोलापन था जो कुटनियों के चेहरे की खास बात है. मैंने उसे डांटकर पूछा-तू कौन है, यहां क्यों आयी है?
बुढ़िया ने दोनों हाथ उठाकर मेरी बलाये लीं और बोली—बेटा, नाराज न हो, गरीब भिखारी हूँ, मालिकिन का सुहाग भरपूर रहे, उसे जैसा सुनती थी वैसा ही पाया. यह कह कर उसने जल्दी से क़दम उठाए और बाहर चली गई. मेरे गुस्से का पारा चढ़ा मैंने घर जाकर पूछा—यह कौन औरत थी?
मेरी बीवी ने सर झुकाये धीरे से जवाब दिया—क्या जानूं, कोई भिखरिन थी.
मैंने कहा, भिखारिनों की सूरत ऐसी नहीं हुआ करती, यह तो मुझे कुटनी-सी नजर आती है. साफ़-साफ़ बताओं उसके यहां आने का क्या मतलब था.
लेकिन बजाय कि इन संदेह-भरी बातों को सुनकर मेरी बीवी गर्व से सिर उठाये और मेरी तरफ़ उपेक्षा-भरी आंखों से देखकर अपनी साफ़दिली का सबूत दे, उसने सर झुकाए हुए जवाब दिया—मैं उसके पेट में थोड़े ही बैठी थी. भीख मांगने आयी थी भींख दे दी, किसी के दिल का हाल कोई क्या जाने!
उसके लहजे और अंदाज से पता चलता था कि वह जितना जबान से कहती है, उससे ज्यादा उसके दिल में है. झूठा आरोप लगाने की कला में वह अभी बिलकुल कच्ची थी वर्ना तिरिया चरित्तर की थाह किसे मिलती है. मैं देख रहा था कि उसके हाथ-पांव थरथरा रहे है.
मैंने झपटकर उसका हाथ पकड़ा और उसके सिर को ऊपर उठाकर बड़े गंभीर क्रोध से बोला—इंदु, तुम जानती हो कि मुझे तुम्हारा कितना एतबार है लेकिन अगर तुमने इसी वक्त़ सारी घटना सच-सच न बता दी तो मैं नहीं कह सकता कि इसका नतीजा क्या होगा. तुम्हारा ढंग बतलाता है कि कुछ-न-कुछ दाल में काला जरुर है.
यह खूब समझ रखो कि मैं अपनी इज्जत को तुम्हारी और अपनी जानों से ज्यादा अज़ीज़ समझता हूँ. मेरे लिए यह डूब मरने की जगह है कि मैं अपनी बीवी से इस तरह की बातें करूं, उसकी ओर से मेरे दिल मे संदेह पैदा हो. मुझे अब ज्यादा सब्र की गुंजाइश नहीं हैं बोलो क्या बात है?
इंदुमती मेरे पैरो पर गिर पड़ी और रोकर बोली—मेरा कसूर माफ कर दो.
मैंने गरजकर कहा—वह कौन सा कसूर है?
इंदूमति ने संभलकर जवाब दिया—तुम अपने दिल में इस वक्त जो ख्याल कर रहे हो उसे एक पल के लिए भी वहां न रहने दो , वर्ना समझ लो कि आज ही इस जिंदगी का खात्मा है. मुझे नहीं मालूम था कि तुम मेरे ऊपर जो जुल्म किए हैं उन्हें मैंने किस तरह झेला है और अब भी सब-कुछ झेलने के लिए तैयार हूँ. मेरा सर तुम्हारे पैंरो पर है, जिस तरह रखोगे, रहूँगी.
लेकिन आज मुझे मालूम हुआ कि तुम खुद हो वैसा ही दूसरों को समझते हो. मुझसे भूल अवश्य हुई है लेकिन उस भूल की यह सजा नहीं कि तुम मुझ पर ऐसे संदेह न करो. मैंने उस औरत की बातों में आकर अपने सारे घर का चिट्ठा बयान कर दिया. मैं समझती थी कि मुझे ऐसा नहीं करना चाहिये लेकिन कुछ तो उस औरत की हमदर्दी और कुछ मेरे अंदर सुलगती हुई आग ने मुझसे यह भूल करवाई और इसके लिए तुम जो सजा दो वह मेरे सर-आंखों पर.
मेरा गुस्सा जरा धीमा हुआ. बोला-तुमने उससे क्या कहा?
इंदुमति ने दिया—घर का जो कुछ हाल है, तुम्हारी बेवफाई , तुम्हारी लापरवाही, तुम्हारा घर की जरुरतों की फ़्रिक न रखना. अपनी बेवकूफी का क्या कहूँ, मैने उसे यहां तक कह दिया कि इधर तीन महीने से उन्होंने घर के लिए कुछ खर्च भी नहीं दिया और इसकी चोट मेरे गहनो पर पड़ी.
तुम्हे शायद मालूम नहीं कि इन तीन महीनों में मेरे साढ़े चार सौ रुपये के जेवर बिक गये. न मालूम क्यों मैं उससे यह सब कुछ कह गयी. जब इंसान का दिल जलता है तो जबान तक उसी आंच आ ही जाती है. मगर मुझसे जो कुछ खता हुई उससे कई गुनी सख्त सजा तुमने मुझे दी है; मेरा बयान लेने का भी सब्र न हुआ.
खैर, तुम्हारे दिल की कैफियत मुझे मालूम हो गई, तुम्हारा दिल मेरी तरफ़ से साफ़ नहीं है, तुम्हें मुझपर विश्वास नहीं रहा वर्ना एक भिखारिन औरत के घर से निकलने पर तुम्हें ऐसे शुबहे क्यों होते.
मैं सर पर हाथ रखकर बैठ गया. मालूम हो गया कि तबाही के सामान पूरे हुए जाते हैं.
दूसरे दिन मैं ज्यों ही दफ्तर में पहुंचा चोबदार ने आकर कहा-महाराज साहब ने आपको याद किया है.
मैं तो अपनी किस्मत का फैसला पहले से ही किये बैठा था. मैं खूब समझ गया था कि वह बुढ़िया खुफ़िया पुलिस की कोई मुख़बिर है जो मेरे घरेलू मामलों की जांच के लिए तैनात हुई होगी.
कल उसकी रिर्पोट आयी होगी और आज मेरी तलबी है. खौफ़ से सहमा हुआ लेकिन दिल को किसी तरह संभाले हुए कि जो कुछ सर पर पड़ेंगी देखा जाएगा, अभी से क्यों जान दूं, मैं महाराजा की खिदमत में पहुँचा. वह इस वक्त अपने पूजा के कमरे में अकेले बैठै हुए थे, क़ागजों का एक ढेर इधर-उधर फैला हुआ था ओर वह खुद किसी ख्याल में डूबे हुए थे.
मुझे देखते ही वह मेरी तरफ मुखातिब हुए, उनके चेहरे पर नाराज़गी के लक्षण दिखाई दिये, बोले कुंअर श्यामसिंह, मुझे बहुत अफसोस है कि तुम्हारी बावत मुझे जो बातें मालूम हुईं वह मुझे इस बात के लिए मजबूर करती हैं कि तुम्हारे साथ सख्ती का बर्ताव किया जाए.
तुम मेरे पुराने वसीक़ादार हो और तुम्हें यह गौरव कई पीढ़ियों से प्राप्त है. तुम्हारे बुजुर्गों ने हमारे खानदान की जान लगाकार सेवाएं की हैं और उन्हीं के सिलें में यह वसीक़ा दिया गया था लेकिन तुमने अपनी हरकतों से अपने को इस कृपा के योग्य नहीं रक्खा. तुम्हें इसलिए वसीक़ा मिलता था कि तुम अपने खानदान की परवरिश करों, अपने लड़कों को इस योग्य बनाओ कि वह राज्य की कुछ खिदमत कर सकें, उन्हें शारीरिक और नैतिक शिक्षा दो ताकि तुम्हारी जात से रियासत की भलाई हो, न कि इसलिए कि तुम इस रुपये को बेहूदा ऐशपस्ती और हरामकारी में खर्च करो.
मुझे इस बात से बहुत तकलीफ़ होती है कि तुमने अब अपने बाल-बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी से भी अपने को मुक्त समझ लिया है. अगर तुम्हारा यही ढंग रहा तो यकीनन वसीक़ादारों का एक पुराना खानदान मिट जाएगा. इसलिए हाज से हमने तुम्हारा नाम वसीक़ादारों की फ़ेहरिस्त से खारिज कर दिया और तुम्हारी जगह तुम्हारी बीवी का नाम दर्ज किया गया. वह अपने लड़कों को पालने-पोसने की जिम्मेदार है.
तुम्हारा नाम रियासत के मालियों की फ़ेहरिस्त मे लिया जाएगा, तुमने अपने को इसी के योग्य सिद्ध किया है और मुझे उम्मीद है कि यह तबादला तुम्हें नागवार न होगा. बस, जाओ और मुमकिन हो तो अपने किये पर पछताओ.
मुझे कुछ कहने का साहस न हुआ. मैंने बहुत धैर्यपूर्वक अपने क़िस्मत का यह फ़ैसला सुना और घर की तरफ़ चला. लेकिन दो ही चार क़दम चला था कि अचानक ख़चाल आया किसके घर जा रहे हो, तुम्हारा घर अब कहां है ! मैं उलटे क़दम लौटा. जिस घर का मैं राजा था वहां दूसरों का आश्रित बनकर मुझसे नहीं रहा जाएगा और रहा भी जाये तो मुझे रहना चाहिए. मेरा आचरण निश्चय ही अनुचित था लेकिन मेरी नैतिक संवदेना अभी इतनी थोथी न हुई थी.
मैंने पक्का इरादा कर लिया कि इसी वक्त इस शहर से भाग जाना मुनासिब है वर्ना बात फैलते ही हमदर्दों और बुरा चेतनेवालों का एक जमघट हालचाल पूछने के लिए आ जाएगा, दूसरों की सूखी हमदर्दियां सुननी पडेंगी जिनके पर्दे में खुशी झलकती होगीं एक बारख् सिर्फ एक बार, मुझे फूलमती का खयाल आया.
उसके कारण यह सब दुर्गत हो रही है, उससे तो मिल ही लूं. मगर दिल ने रोका, क्या एक वैभवशाली आदमी की जो इज्जत होती थी वह अब मुझे हासिल हो सकती है? हरगिज़ नहीं. रूप की मण्डी में वफ़ा और मुहब्बत के मुक़ाबिले में रुपया-पैसा ज्यादा क़ीमती चींज है. मुमकिन है इस वक्त मुझ पर तरस खाकर या क्षणिक आवेश में आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये लेकिन या क्षणिक आवेश में आकर फूलमती मेरे साथ चलने पर आमादा हो जाये लेकिन उसे लेकर कहां जाऊँगा, पांवों में बेड़ियां डालकर चलना तो ओर भी मुश्किल है.
इस तरह सोच-विचार कर मैंने बम्बई की राह ली और अब दो साल से एक मिल में नौकर हूँ, तनख्वाह सिर्फ़ इतनी है कि ज्यों-त्यों जिन्दगी का सिलसिला चलता रहे लेकिन ईश्चर को धन्यवाद देता हूँ और इसी को यथेष्ट समझता हूँ. मैं एक बार गुप्त रूप से अपने घर गया था. फूलमती ने एक दूसरे रईस से रूप का सौदा कर लिया है, लेकिन मेरी पत्नी ने अपने प्रबन्ध-कौशल से घर की हालत खूब संभाल ली है.
मैंने अपने मकान को रात के समय लालसा-भरी आंखों से देखा-दरवाज़े पर पर दो लालटेनें जल रही थीं और बच्चे इधर-उधर खेल रहे थे, हर सफ़ाई और सुथरापन दिखायी देता था. मुझे कुछ अखबारों के देखने से मालूम हुआ कि महीनों तक मेरे पते-निशान के बारे में अखबरों में इश्तहार छपते रहे. लेकिन अब यह सूरत लेकर मैं वहां क्या जाऊंगा ओर यह कालिख-लगा मुंह किसको दिखाऊंगा.
अब तो मुझे इसी गिरी-पड़ी हालत में जिन्दगी के दिन काटने हैं, चाहे रोकर काटूं या हंसकर. मैं अपनी हरकतों पर अब बहुत शर्मिंदा हूँ. अफसोस मैंने उन नेमतों की कद्र न की, उन्हें लात से ठोकर मारी, यह उसी की सजा है कि आज मुझें यह दिन देखना पड़ रहा है. मैं वह परवाना हूँ. मैं वह परवाना हूँ जिसकी खाक भी हवा के झोंकों से नहीं बची.
No comments:
Post a Comment