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Motivational Stories of Osho

Osho Stories in Hindi-एक हाथ की ताली

सुनी है मैंने एक छोटी-सी कहानी, वह मैं आपसे कहूं, फिर मैं दूसरा सूत्र लूं.

एक झेन फकीर हुआ. उसके पास, उसके मंदिर में जहां वह ठहरता है, उसके वृक्ष के नीचे जहां वह विश्राम करता है, दूर-दूर से साधक आते हैं. दूर-दूर से साधक आते हैं, उससे पूछते हैं, ध्यान की कोई विधि. वह उन्हें ध्यान की विधियां बताता है. वह उन्हें कोई सूत्र देता है कि जाकर इस पर ध्यान करो.

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एक छोटा-सा बच्चा भी कभी-कभी उस वृक्ष के नीचे आकर बैठ जाता है. कभी उसके मंदिर में आ जाता है. बारह साल उसकी उम्र होगी. वह भी सुनता है बड़े ध्यान से बैठकर. बड़ी बातें! उसकी समझ में नहीं भी पड़ती हैं, पड़ती भी हैं. क्योंकि कुछ नहीं कहा जा सकता.

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कई बार जिनको लगता है कि समझ में पड़ रहा है, उन्हें कुछ भी समझ नहीं पड़ता. और कई बार जिन्हें लगता है कि कुछ समझ में नहीं पड़ रहा है, उन्हें भी कुछ समझ में पड़ जाता है.

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बहुत बार ऐसा ही होता है कि जिसे लगता है, कुछ समझ में नहीं पड़ रहा है–इतना भी समझ में पड़ जाना कोई छोटी समझ नहीं है.

वह छोटा बच्चा आकर बैठता है. कोई साधक, कोई संन्यासी, कोई योगी आकर झेन फकीर से ध्यान के लिए कोई विषय, कोई आब्जेक्ट मांगता है. वह देखता रहता है. उसने देखा कि जब भी कोई साधक आता है, तो मंदिर का घंटा बजाता है, झुककर तीन बार नमस्कार करता है, झुककर विनम्र भाव से बैठता है; आदर से प्रश्न पूछता है, मंत्र लेता है, विदा होता है. फिर साधना करके, वापस लौटकर खबर देता है.

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एक दिन सुबह वह बच्चा भी उठा, स्नान किया, फूल लिए हाथ में, आकर जोर से मंदिर का घंटा बजाया. झेन फकीर ने ऊपर आंख उठाकर देखा कि शायद कोई साधक आया. लेकिन देखा, वह छोटा बच्चा है, जो कभी-कभी आ जाता है. आकर तीन बार झुककर नमस्कार किया. फूल चरणों में रखे. हाथ जोड़कर कहा कि मुझे भी वह मार्ग बताएं, जिससे मैं ध्यान को उपलब्ध हो सकूं.

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उस गुरु ने बहुत बड़े-बड़े साधकों को मार्ग बताया था, इस छोटे बच्चे को क्या मार्ग बताए! लेकिन विधि उसने पूरी कर दी थी, इनकार किया नहीं जा सकता था. ठीक व्यवस्था से घंटा बजाया था. हाथ जोड़कर नमस्कार किया था. चरणों में फूल रखे थे. विनम्र भाव से बैठकर प्रार्थना की थी कि आज्ञा दें, मैं क्या करूं कि ध्यान को उपलब्ध हो जाऊं, प्रभु का स्मरण आ जाए. उस छोटे-से बच्चे के लिए कौन-सी विधि बताई जाए!

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उस गुरु ने कहा, तू एक काम कर, दोनों हाथ जोर से बजा. लड़के ने दोनों हाथ की ताली बजाई. गुरु ने कहा कि ठीक. आवाज बिलकुल ठीक बजी. ताली तू बजा लेता है. अब एक हाथ नीचे रख ले. अब एक ही हाथ से ताली बजा. उस बच्चे ने कहा, बहुत कठिन मालूम पड़ता है. एक हाथ से ताली कैसे बजाऊं? तो उस गुरु ने कहा, यही तेरे लिए मंत्र हुआ. अब इस पर तू ध्यान कर. और जब तुझे पता चल जाए कि एक हाथ से ताली कैसे बजेगी, तब तू आकर मुझे बता देना.

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बच्चा गया. उस दिन उसने खाना भी नहीं खाया. वह वृक्ष के नीचे बैठकर सोचने लगा, एक हाथ की ताली कैसे बजेगी? बहुत सोचा, बहुत सोचा.

आप कहेंगे, कहां के पागलपन के सवाल को उसे दे दिया. सभी सवाल पागलपन के हैं. कोई भी सवाल कभी सोचा होगा, इससे कम पागलपन का नहीं रहा होगा.

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कोई सोच रहा है, जगत को किसने बनाया? क्या एक हाथ से ताली बजाने वाले सवाल से कोई बहुत बेहतर सवाल है! कोई सोच रहा है कि आत्मा कहां से आई? एक हाथ से ताली बजाने के सवाल से कोई ज्यादा अर्थपूर्ण सवाल है!

लेकिन उस बच्चे ने बड़े सदभाव से सोचा. सोचा, रात उसे खयाल आया कि ठीक. मेंढक आवाज करते थे. उसने भी मेंढक की आवाज मुंह से की. और उसने कहा कि ठीक. यही आवाज होनी चाहिए एक हाथ की.

आकर सुबह घंटा बजाया. विनम्र भाव से बैठकर उसने आवाज की मुंह से, जैसे मेंढक टर्राते हों. और गुरु से कहा, देखिए, यही है न आवाज, जिसकी आप बात करते थे? गुरु ने कहा कि नहीं, यह तो पागल मेंढक की आवाज है. एक हाथ की ताली की आवाज!

दूसरे दिन फिर सोचकर आया; तीसरे दिन फिर सोचकर आया. कुछ-कुछ लाया, रोज-रोज लाया. यह है आवाज, यह है आवाज. गुरु रोज कहता गया, यह भी नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं. वर्ष बीतने को पूरा हो गया. वह रोज खोजकर लाता रहा. कभी कहता कि झींगुर की आवाज, कभी कहता कि वृक्षों के बीच से गुजरती हुई हवा की आवाज. 

कभी कहता कि वृक्षों से गिरते हुए पत्तों की आवाज. कभी कहता कि वर्षा में पानी की आवाज छप्पर पर. बहुत आवाजें लाया, लेकिन सब आवाजें गुरु इनकार करता गया. कहा कि नहीं, यह भी नहीं, यह भी नहीं.

फिर उसने आना बंद कर दिया. फिर बहुत दिन गए वापस लौटा. घंटा बजाया. पैरों में फिर फूल रखे. हाथ जोड़कर चुपचाप पास बैठ गया. गुरु ने कहा, लाए कोई उत्तर? आवाज खोजी कोई? उसने सिर्फ आंखें उठाकर गुरु की तरफ देखा–मौन, चुप. गुरु ने कहा, ठीक है. यही है आवाज–मौन, चुप. गुरु ने कहा, यही है आवाज. तुझे पता चल गया, एक हाथ की आवाज कैसी होती है. अब तुझे और भी कुछ आगे खोज करना है?

उसने कहा, लेकिन अब आगे खोज करने को कुछ भी न बचा. एक-एक आवाज को, खोज को, आप इनकार करते गए, इनकार करते गए, इनकार करते गए. सब आवाजें गिरती गईं. फिर सिवाय मौन के कुछ भी न बचा. पिछले महीनेभर से मैं बिलकुल मौन ही बैठा हूं. कोई आवाज ही नहीं सूझती; कोई शब्द ही नहीं आता; मौन ही मौन! और अब मुझे कुछ भी नहीं चाहिए. एक हाथ की आवाज जान पाया, नहीं जान पाया, मुझे पता नहीं. लेकिन इस मौन में मैंने जो देखा, जो जाना, शायद लोग उसी को परमात्मा कहते हैं.

एक-एक चीज को इनकार करते चले जाना पड़ेगा. किसी से भी शुरू करें. शरीर से शुरू करें, तो जानना पड़ेगा कि शरीर नहीं है. भीतर जाएं, श्वास मिलेगी. जानना पड़ेगा, श्वास भी वह नहीं है. और भीतर जाएं, विचार मिलेंगे. जानना पड़ेगा, विचार भी वह नहीं है. और भीतर जाएं, वृत्तियां मिलेंगी. जानना पड़ेगा, वृत्तियां भी वह नहीं है. और उतरते जाएं, और उतरते जाएं. भाव मिलेंगे, जानें कि भाव भी वह नहीं है. उतरते जाएं गहरे-गहरे कुएं में!

एक घड़ी ऐसी आ जाएगी कि इनकार करने को कुछ भी न बचेगा, सन्नाटा और शून्य रह जाएगा. आ गई अंतर-गुफा, जहां अब यह भी कहने को नहीं बचा कि यह भी नहीं है. वहीं, उसी क्षण, उसी क्षण वह विस्फोट हो जाता है, जिसमें प्रभु का अनुभव होता है. बस, वह अनुभव एक क्षण को हो जाए, फिर निरंतर श्वास-श्वास, रोएं-रोएं, उठते-बैठते, सोते-जागते वह गूंजने लगता है. तब है स्मरण निरंतर.

और कृष्ण कहते हैं, ऐसे निरंतर स्मरण को उपलब्ध व्यक्ति ही मुझमें प्रतिष्ठित होता है, प्रभु में प्रतिष्ठित होता है. या उलटा कहें तो भी ठीक कि ऐसे व्यक्ति में, ऐसे निराकार, शून्य हो गए व्यक्ति में, ऐसे सतत सुरति से भर गए व्यक्ति में प्रभु प्रतिष्ठित हो जाता है.

ओशो – गीता-दर्शन – भाग 3, (अध्याय—6)
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