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आल्हा

- प्रेमचंद

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आल्हा का नाम किसने नहीं सुना. पुराने जमाने के चन्देल क्षत्रियों में वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली. क्षत्रियों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था. आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है. सच्चा क्षत्रिय क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी.

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आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो. यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठ-नौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया. आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है. देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं. शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं. 

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बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में यह किस्सा अधिक लोकप्रिय है. किसी मजलिस में जाइए हजारों आदमी जमीन के फर्श पर बैठे हुए हैं, सारी महाफिल जैसे बेसुध हो रही है और आल्हा गाने वाला किसी मोढ़े पर बैठा हुआ आपनी अलाप सुना रहा है. उसकी आवज आवश्यकतानुसार कभी ऊँची हो जाती है और कभी मद्धिम, मगर जब वह किसी लड़ाई और उसकी तैयारियों का जिक्र करने लगता है तो शब्दों का प्रवाह, उसके हाथों और भावों के इशारे, ढोल की मर्दाना लय उन पर वीरतापूर्ण शब्दों का चुस्ती से बैठना, जो जड़ाई की कविताओं ही की अपनी एक विशेषता है, यह सब चीजें मिलकर सुनने वालों के दिलों में मर्दाना जोश की एक उमंग सी पैदा कर देती हैं. 

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बयान करने का तर्ज ऐसा सादा और दिलचस्प और जबान ऐसी आमफहम है कि उसके समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती. वर्णन और भावों की सादगी, कला के सौंदर्य का प्राण है. राजा परमालदेव चन्देल खानदान का आखिरी राजा था. तेरहवीं शाताब्दी के आरम्भ में वह खानदान समाप्त हो गया. महोबा जो एक मामूली कस्बा है उस जमाने में चन्देलों की राजधानी था. महोबा की सल्तनत दिल्ली और कन्नौज से आंखें मिलाती थी. आल्हा और ऊदल इसी राजा परमालदेव के दरबार के सम्मनित सदस्य थे. यह दोनों भाई अभी बच्चे ही थे कि उनका बाप जसराज एक लड़ाई में मारा गया. 

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राजा को अनाथों पर तरस आया, उन्हें राजमहल में ले आये और मोहब्बत के साथ अपनी रानी मलिनहा के सुपुर्द कर दिया. रानी ने उन दोनों भाइयों की परवरिश और लालन-पालन अपने लड़के की तरह किया. जवान होकर यही दोनों भाई बहादुरी में सारी दुनिया में मशहूर हुए. इन्हीं दिलावरों के कारनामों ने महोबे का नाम रोशन कर दिया है.

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बड़े लड़ाइया महोबेवाला जिनके बल को वार न पार. आल्हा और ऊदल राजा परमालदेव पर जान कुर्बान करने के लिए हमेशा तैयार रहते थे. रानी मलिनहा ने उन्हें पाला, उनकी शादियां कीं, उन्हें गोद में खिलाया. नमक के हक के साथ-साथ इन एहसानों और सम्बन्धों ने दोनों भाइयों को चन्देल राजा का जॉँनिसार रखवाला और राजा परमालदेव का वफादार सेवक बना दिया था. उनकी वीरता के कारण आस-पास के सैकडों घमंडी राजा चन्देलों के अधीन हो गये. महोबा राज्य की सीमाएँ नदी की बाढ़ की तरह फैलने लगीं और चन्देलों की शक्ति दूज के चॉँद से बढ़कर पूरनमासी का चॉँद हो गई. यह दोनों वीर कभी चैन से न बैठते थे. 

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रणक्षेत्र में अपने हाथ का जौहर दिखाने की उन्हें धुन थी. सुख-सेज पर उन्हें नींद न आती थी. और वह जमाना भी ऐसा ही बेचैनियों से भरा हुआ था. उस जमाने में चैन से बैठना दुनिया के परदे से मिट जाना था. बात-बात पर तलवांरें चलतीं और खून की नदियॉँ बहती थीं. यहॉँ तक कि शादियाँ भी खूनी लड़ाइयों जैसी हो गई थीं. लड़की पैदा हुई और शामत आ गई. 

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हजारों सिपाहियों, सरदारों और सम्बन्धियों की जानें दहेज में देनी पड़ती थीं. आल्हा और ऊदल उस पुरशोर जमाने की यच्ची तस्वीरें हैं और गोकि ऐसी हालतों ओर जमाने के साथ जो नैतिक दुर्बलताएँ और विषमताएँ पाई जाती हैं, उनके असर से वह भी बचे हुए नहीं हैं, मगर उनकी दुर्बलताएँ उनका कसूर नहीं बल्कि उनके जमाने का कसूर हैं.

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आल्हा का मामा माहिल एक काले दिल का, मन में द्वेष पालने वाला आदमी था. इन दोनों भाइयों का प्रताप और ऐश्वर्य उसके हृदय में कॉँटे की तरह खटका करता था. उसकी जिन्दगी की सबसे बड़ी आरजू यह थी कि उनके बड़प्पन को किसी तरह खाक में मिला दे. इसी नेक काम के लिए उसने अपनी जिन्दगी न्यौछावर कर दी थी. सैंकड़ों वार किये, सैंकड़ों बार आग लगायी, यहॉँ तक कि आखिरकार उसकी नशा पैदा करनेवाली मंत्रणाओं ने राजा परमाल को मतवाला कर दिया. लोहा भी पानी से कट जाता है. 

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एक रोज राजा परमाल दरबार में अकेले बैठे हुए थे कि माहिल आया. राजा ने उसे उदास देखकर पूछा, भइया, तुम्हारा चेहरा कुछ उतरा हुआ है. माहिल की आँखों में आँसू आ गये. मक्कार आदमी को अपनी भावनाओं पर जो अधिकार होता है वह किसी बड़े योगी के लिए भी कठिन है. उसका दिल रोता है मगर होंठ हँसते हैं, दिल खुशियों के मजे लेता है मगर आँखें रोती हैं, दिल डाह की आग से जलता है मगर जबान से शहद और शक्कर की नदियॉँ बहती हैं.

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माहिल बोला-महाराज, आपकी छाया में रहकर मुझे दुनिया में अब किसी चीज की इच्छा बाकी नहीं मगर जिन लोगों को आपने धूल से उठाकर आसमान पर पहुँचा दिया और जो आपकी कृपा से आज बड़े प्रताप और ऐश्वर्यवाले बन गये, उनकी कृतघ्रता और उपद्रव खड़े करना मेरे लिए बड़े दु:ख का कारण हो रही है. परमाल ने आश्चर्य से पूछा- क्या मेरा नमक खानेवालों में ऐसे भी लोग हैं? माहिल- महाराज, मैं कुछ नहीं कह सकता. आपका हृदय कृपा का सागर है मगर उसमें एक खूंखार घड़ियाल आ घुसा है. -वह कौन है? -मैं. 

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राजा ने आश्चर्यान्वित होकर कहा-तुम! महिल- हॉँ महाराज, वह अभागा व्यक्ति मैं ही हूँ. मैं आज खुद अपनी फरियाद लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हुआ हूँ. अपने सम्बन्धियों के प्रति मेरा जो कर्तव्य है वह उस भक्ति की तुलना में कुछ भी नहीं जो मुझे आपके प्रति है. आल्हा मेरे जिगर का टुकड़ा है. उसका मांस मेरा मांस और उसका रक्त मेरा रक्त है. मगर अपने शरीर में जो रोग पैदा हो जाता है उसे विवश होकर हकीम से कहना पड़ता है. आल्हा अपनी दौलत के नशे में चूर हो रहा है. 

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उसके दिल में यह झूठा खयाल पैदा हो गया है कि मेरे ही बाहु-बल से यह राज्य कायम है. राजा परमाल की आंखें लाल हो गयीं, बोला-आल्हा को मैंने हमेशा अपना लड़का समझा है. माहिल- लड़के से ज्यादा. परमाल- वह अनाथ था, कोई उसका संरक्षक न था. मैंने उसका पालन-पोषण किया, उसे गोद में खिलाया. 

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मैंने उसे जागीरें दीं, उसे अपनी फौज का सिपहसालार बनाया. उसकी शादी में मैंने बीस हजार चन्देल सूरमाओं का खून बहा दिया. उसकी मॉँ और मेरी मलिनहा वर्षों गले मिलकर सोई हैं और आल्हा क्या मेरे एहसानों को भूल सकता है? माहिल, मुझे तुम्हारी बात पर विश्वास नहीं आता. माहिल का चेहरा पीला पड़ गया. मगर सम्हलकर बोला- महाराज, मेरी जबान से कभी झूठ बात नहीं निकली. परमाह- मुझे कैसे विश्वास हो? महिल ने धीरे से राजा के कान में कुछ कह दिया.

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आल्हा और ऊदल दोनों चौगान के खेल का अभ्यास कर रहे थे. लम्बे-चौड़े मैदान में हजारों आदमी इस तमाशे को देख रहे थे. गेंद किसी अभागे की तरह इधर-उधर ठोकरें खाता फिरता था. चोबदार ने आकर कहा-महाराज ने याद फरमाया है. आल्हा को सन्देह हुआ. महाराज ने आज बेवक्त क्यों याद किया? खेल बन्द हो गया. गेंद को ठोकरों से छुट्टी मिली. फौरन दरबार मे चौबदार के साथ हाजिर हुआ और झुककर आदाब बजा लाया. 

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परमाल ने कहा- मैं तुमसे कुछ मॉँगूँ? दोगे? आल्हा ने सादगी से जवाब दिया-फरमाइए. परमाल-इनकार तो न करोगे? आल्हा ने कनखियों से माहिल की तरफ देखा समझ गया कि इस वक्त कुछ न कुछ दाल में काला है. इसके चेहरे पर यह मुस्कराहट क्यों? गूलर में यह फूल क्यों लगे? क्या मेरी वफादारी का इम्तहान लिया जा रहा है? जोश से बोला-महाराज, मैं आपकी जबान से ऐसे सवाल सुनने का आदी नहीं हूँ. आप मेरे संरक्षक, मेरे पालनहार, मेरे राजा हैं. आपकी भँवों के इशारे पर मैं आग में कूद सकता हूँ और मौत से लड़ सकता हूँ. 

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आपकी आज्ञा पाकर में असम्भव को सम्भव बना सकता हूँ आप मुझसे ऐसे सवाल न करें. परमाल- शाबाश, मुझे तुमसे ऐसी ही उम्मीद है. आल्हा-मुझे क्या हुक्म मिलता है? परमाल- तुम्हारे पास नाहर घोड़ा है? आल्हा ने ‘जी हॉँ’ कहकर माहिल की तरफ भयानक गुस्से भरी हुई आँखों से देखा. परमाल- अगर तुम्हें बुरा न लगे तो उसे मेरी सवारी के लिए दे दो. आल्हा कुछ जवाब न दे सका, सोचने लगा, मैंने अभी वादा किया है कि इनकार न करूँगा. 

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मैंने बात हारी है. मुझे इनकार न करना चाहिए. निश्चय ही इस वक्त मेरी स्वामिभक्ति की परीक्षा ली जा रही है. मेरा इनकार इस समय बहुत बेमौका और खतरनाक है. इसका तो कुछ गम नहीं. मगर मैं इनकार किस मुँह से करूँ, बेवफा न कहलाऊँगा? मेरा और राजा का सम्बन्ध केवल स्वामी और सेवक का ही नहीं है, मैं उनकी गोद में खेला हूँ. जब मेरे हाथ कमजोर थे, और पॉँव में खड़े होने का बूता न था, तब उन्होंने मेरे जुल्म सहे हैं, क्या मैं इनकार कर सकता हूँ? विचारों की धारा मुड़ी- माना कि राजा के एहसान मुझ पर अनगिनती हैं मेरे शरीर का एक-एक रोआँ उनके एहसानों के बोझ से दबा हुआ है मगर क्षत्रिय कभी अपनी सवारी का घोड़ा दूसरे को नहीं देता. 

यह क्षत्रियों का धर्म नहीं. मैं राजा का पाला हुआ और एहसानमन्द हूँ. मुझे अपने शरीर पर अधिकार है. उसे मैं राजा पर न्यौछावर कर सकता हूँ. मगर राजपूती धर्म पर मेरा कोई अधिकार नहीं है, उसे मैं नहीं तोड़ सकता. जिन लोगों ने धर्म के कच्चे धागे को लोहे की दीवार समझा है, उन्हीं से राजपूतों का नाम चमक रहा है. क्या मैं हमेशा के लिए अपने ऊपर दाग लगाऊँ? आह! माहिल ने इस वक्त मुझे खूब जकड़ रखा है. 

सामने खूंखार शेर है; पीछे गहरी खाई. या तो अपमान उठाऊँ या कृतघ्न कहलाऊँ. या तो क्षत्रियों के नाम को डुबोऊँ या बर्बाद हो जॉँऊ. खैर, जो ईश्वर की मर्जी, मुझे कृतघ्न कहलाना स्वीकार है, मगर अपमानित होना स्वीकार नहीं. बर्बाद हो जाना मंजूर है, मगर राजपूतों के धर्म में बट्टा लगाना मंजूर नहीं. आल्हा सर नीचा किये इन्हीं खयालों में गोते खा रहा था. यह उसके लिए परीक्षा की घड़ी थी जिसमें सफल हो जाने पर उसका भविष्य निर्भर था. मगर माहिला के लिए यह मौका उसके धीरज की कम परीक्षा लेने वाला न था. 

वह दिन अब आ गया जिसके इन्तजार में कभी आँखें नहीं थकीं. खुशियों की यह बाढ़ अब संयम की लोहे की दीवार को काटती जाती थी. सिद्ध योगी पर दुर्बल मनुष्य की विजय होती जाती थी. एकाएक परमाल ने आल्हा से बुलन्द आवाज में पूछा- किस दनिधा में हो? क्या नहीं देना चाहते? आल्हा ने राजा से आंखें मिलाकर कहा-जी नहीं. परमाल को तैश आ गया, कड़ककर बोला-क्यों? आल्हा ने अविचल मन से उत्तर दिया-यह राजपूतों का धर्म नहीं है. 

परमाल-क्या मेरे एहसानों का यही बदला है? तुम जानते हो, पहले तुम क्या थे और अब क्या हो? आल्हा-जी हॉँ, जानता हूँ. परमाल- तुम्हें मैंने बनाया है और मैं ही बिगाड़ सकता हूँ. आल्हा से अब सब्र न हो सका, उसकी आँखें लाल हो गयीं और त्योरियों पर बल पड़ गये. तेज लहजे में बोला- महाराज, आपने मेरे ऊपर जो एहसान किए, उनका मैं हमेशा कृतज्ञ रहूँगा. क्षत्रिय कभी एहसान नहीं भूलता. मगर आपने मेरे ऊपर एहसान किए हैं, तो मैंने भी जो तोड़कर आपकी सेवा की है. 

सिर्फ नौकरी और नामक का हक अदा करने का भाव मुझमें वह निष्ठा और गर्मी नहीं पैदा कर सकता जिसका मैं बार-बार परिचय दे चुका हूँ. मगर खैर, अब मुझे विश्वास हो गया कि इस दरबार में मेरा गुजर न होगा. मेरा आखिरी सलाम कबूल हो और अपनी नादानी से मैंने जो कुछ भूल की है वह माफ की जाए. माहिल की ओर देखकर उसने कहा- मामा जी, आज से मेरे और आपके बीच खून का रिश्ता टूटता है. आप मेरे खून के प्यासे हैं तो मैं भी आपकी जान का दुश्मन हूँ. 

आल्हा की मॉँ का नाम देवल देवी था. उसकी गिनती उन हौसले वाली उच्च विचार स्त्रियों में है जिन्होंने हिन्दोस्तान के पिछले कारनामों को इतना स्पृहणीय बना दिया है. उस अंधेरे युग में भी जबकि आपसी फूट और बैर की एक भयानक बाढ़ मुल्क में आ पहुँची थी, हिन्दोस्तान में ऐसी ऐसी देवियॉँ पैदा हुई जो इतिहास के अंधेरे से अंधेरे पन्नों को भी ज्योतित कर सकती हैं. देवल देवी से सुना कि आल्हा ने अपनी आन को रखने के लिए क्या किया तो उसकी आखों भर आए. 

उसने दोनों भाइयों को गले लगाकर कहा- बेटा ,तुमने वही किया जो क्षत्रिय का धर्म था. मैं बड़ी भाग्यशालिनी हूँ कि तुम जैसे दो बात की लाज रखने वाले बेटे पाये हैं . उसी रोज दोनों भाइयों महोबा से कूच कर दिया अपने साथ अपनी तलवार और घोड़ो के सिवा और कुछ न लिया. माल –असबाब सब वहीं छोड़ दिये सिपाही की दौलत और इज्जत सबक कुछ उसकी तलवार है. जिसके पास वीरता की सम्पति है उसे दूसरी किसी सम्पति की जरुरत नहीं. बरसात के दिन थे, नदी नाले उमड़े हुए थे. इन्द्र की उदारताओं से मालामाल होकर जमीन फूली नहीं समाती थी.

पेड़ो पर मोरों की रसीली झनकारे सुनाई देती थीं और खेतों में निश्चिन्तता की शराब से मतवाल किसान मल्हार की तानें अलाप रहे थे. पहाड़ियों की घनी हरियावल पानी की दर्पन –जैसी सतह और जगंली बेल बूटों के बनाव संवार से प्रकृति पर एक यौवन बरस रहा था. मैदानों की ठंडी-ठडीं मस्त हवा जंगली फूलों की मीठी मीठी, सुहानी, आत्मा को उल्लास देनेवाली महक और खेतों की लहराती हुई रंग बिरंगी उपज ने दिलो में आरजुओं का एक तूफान उठा दिया था. 

ऐसे मुबारक मौसम में आल्हा ने महोबा को आखिरी सलाम किया. दोनों भाइयो की आँखे रोते रोते लाल हो गयी थीं क्योंकि आज उनसे उनका देश छूट रहा था. इन्हीं गलियों में उन्होंने घुटने के बल चलना सीखा था, इन्ही तालाबों में कागज की नावें चलाई थीं, यही जवानी की बेफिक्रियों के मजे लूटे थे. इनसे अब हमेशा के लिए नाता टूटता था. दोनो भाई आगे बढ़ते जाते थे, मगर बहुत धीरे-धीरे . यह खयाल था कि शायद परमाल ने रुठनेवालों को मनाने के लिए अपना कोई भरोसे का आदमी भेजा होगा. 

घोड़ो को सम्हाले हुए थे, मगर जब महोबे की पहाड़ियो का आखिरी निशान ऑंखों से ओझल हो गया तो उम्मीद की आखिरी झलक भी गायब हो गयी. उन्होनें जिनका कोई देश नथा एक ठंडी सांस ली और घोडे बढा दिये. उनके निर्वासन का समाचार बहुत जल्द चारों तरफ फैल गया. उनके लिए हर दरबार में जगह थीं, चारों तरफ से राजाओ के सदेश आने लगे. कन्नौज के राजा जयचन्द ने अपने राजकुमार को उनसे मिलने के लिए भेजा. संदेशों से जो काम न निकला वह इस मुलाकात ने पूरा कर दिया. राजकुमार की खातिदारियाँ और आवभगत दोनों भाइयों को कन्नौज खींच ले नई. जयचन्द आंखें बिछाये बैठा था. आल्हा को अपना सेनापति बना दिया.

आल्हा और ऊदल के चले जाने के बाद महोबे में तरह-तरह के अंधेर शुरु हुए. परमाल कमजी शासक था. मातहत राजाओं ने बगावत का झण्डा बुलन्द किया. ऐसी कोई ताकत न रही जो उन झगड़ालू लोगों को वश में रख सके. दिल्ली के राज पृथ्वीराज की कुछ सेना सिमता से एक सफल लड़ाई लड़कर वापस आ रही थी. महोबे में पड़ाव किया. अक्खड़ सिपाहियों में तलवार चलते कितनी देर लगती है. चाहे राजा परमाल के मुलाजियों की ज्यादती हो चाहे चौहान सिपाहियों की, तनीजा यह हुआ कि चन्देलों और चौहानों में अनबन हो गई. 

लड़ाई छिड़ गई. चौहान संख्या में कम थे. चंदेलों ने आतिथ्य-सत्कार के नियमों को एक किनारे रखकर चौहानों के खून से अपना कलेजा ठंडा किया और यह न समझे कि मुठ्ठी भर सिपाहियों के पीछे सारे देश पर विपत्ति आ जाएगी. बेगुनाहों को खून रंग लायेगा. पृथ्वीराज को यह दिल तोड़ने वाली खबर मिली तो उसके गुस्से की कोई हद न रही. ऑंधी की तरह महोबे पर चढ़ दौड़ा और सिरको, जो इलाका महोबे का एक मशहूर कस्बा था, तबाह करके महोबे की तरह बढ़ा. चन्देलों ने भी फौज खड़ी की. मगर पहले ही मुकाबिले में उनके हौसले पस्त हो गये. आल्हा-ऊदल के बगैर फौज बिन दूल्हे की बारात थी. 

सारी फौज तितर-बितर हो गयी. देश में तहलका मच गया. अब किसी क्षण पृथ्वीराज महोबे में आ पहुँचेगा, इस डर से लोगों के हाथ-पॉँव फूल गये. परमाल अपने किये पर बहुत पछताया. मगर अब पछताना व्यर्थ था. कोई चारा न देखकर उसने पृथ्वीराज से एक महीने की सन्धि की प्रार्थना की. चौहान राजा युद्ध के नियमों को कभी हाथ से न जाने देता था. उसकी वीरता उसे कमजोर, बेखबर और नामुस्तैद दुश्मन पर वार करने की इजाजत न देती थी. 

इस मामले में अगर वह इन नियमों को इतनी सख्ती से पाबन्द न होता तो शहाबुद्दीन के हाथों उसे वह बुरा दिन न देखना पड़ता. उसकी बहादुरी ही उसकी जान की गाहक हुई. उसने परमाल का पैगाम मंजूर कर लिया. चन्देलों की जान में जान आई. अब सलाह-मशविरा होने लगा कि पृथ्वीराज से क्योंकर मुकाबिला किया जाये. रानी मलिनहा भी इस मशविरे में शरीक थीं. किसी ने कहा, महोबे के चारों तरफ एक ऊँची दीवार बनायी जाय ; कोई बोला, हम लोग महोबे को वीरान करके दक्खिन को ओर चलें. परमाल जबान से तो कुछ न कहता था, मगर समर्पण के सिवा उसे और कोई चारा न दिखाई पड़ता था. 

तब रानी मलिनहा खड़ी होकर बोली : तुम कैसी बच्चों की-सी बातें करते हो? क्या दीवार खड़ी करके तुम दुश्मन को रोक लोगे? झाडू से कहीं ऑंधी रुकती है ! तुम महोबे को वीरान करके भागने की सलाह देते हो. ऐसी कायरों जैसी सलाह औरतें दिया करती हैं. तुम्हारी सारी बहादुरी और जान पर खेलना अब कहॉँ गया? अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि चन्देलों के नाम से राजे थर्राते थे. चन्देलों की धाक बंधी हुई थी, तुमने कुछ ही सालों में सैंकड़ों मैदान जीते, तुम्हें कभी हार नहीं हुई. तुम्हारी तलवार की दमक कभी मन्द नहीं हुई. तुम अब भी वही हो, मगर तुममें अब वह पुरुषार्थ नहीं है. वह पुरुषार्थ बनाफल वंश के साथ महोबे से उठ गया. 

देवल देवी के रुठने से चण्डिका देवी भी हमसे रुठ गई. अब अगर कोई यह हारी हुई बाजी सम्हाल सकता है तो वह आल्हा है. वही दोनों भाई इस नाजुक वक्त में तुम्हें बचा सकते हैं. उन्हीं को मनाओ, उन्हीं को समझाओं, उन पर महोते के बहुत हक हैं. महोबे की मिट्टी और पानी से उनकी परवरिश हुई है. वह महोबे के हक कभी भूल नहीं सकते, उन्हें ईश्वर ने बल और विद्या दी है, वही इस समय विजय का बीड़ा उठा सकते हैं.’ रानी मलिनहा की बातें लोगों के दिलों में बैठ गयीं.

जगना भाट आल्हा और ऊदल को कन्नौज से लाने के लिए रवाना हुआ. यह दोनों भाई राजकुँवर लाखन के साथ शिकार खेलने जा रहे थे कि जगना ने पहुँचकर प्रणाम किया. उसके चेहरे से परेशानी और झिझक बरस रही थी. आल्हा ने घबराकर पूछा—कवीश्वर, यहॉँ कैसे भूल पड़े? महोबे में तो खैरियत है? हम गरीबों को क्योंकर याद किया? जगना की ऑंखों में ऑंसू भर जाए, बोला—अगर खैरियत होती तो तुम्हारी शरण में क्यों आता. मुसीबत पड़ने पर ही देवताओं की याद आती है. महोबे पर इस वक्त इन्द्र का कोप छाया हुआ है. 

पृथ्वीराज चौहान महोबे को घेरे पड़ा है. नरसिंह और वीरसिंह तलवारों की भेंट हो चुके है. सिरकों सारा राख को ढेर हो गया. चन्देलों का राज वीरान हुआ जाता है. सारे देश में कुहराम मचा हुआ है. बड़ी मुश्किलों से एक महीने की मौहलत ली गई है और मुझे राजा परमाल ने तुम्हारे पास भेजा है. इस मुसीबत के वक्त हमारा कोई मददगार नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी किम्मत बॅंधाये. जब से तुमने महोबे से नहीं है, कोई ऐसा नहीं है जो हमारी हिम्मत बँधाये. जब से तुमने महोबे से नाता तोड़ा है तब से राजा परमाल के होंठों पर हँसी नहीं आई. जिस परमाल को उदास देखकर तुम बेचैन हो जाते थे उसी परमाल की ऑंखें महीनों से नींद को तरसती हैं. 

रानी महिलना, जिसकी गोद में तुम खेले हो, रात-दिन तुम्हारी याद में रोती रहती है. वह अपने झरोखें से कन्नौज की तरफ ऑंखें लगाये तुम्हारी राह देखा करती है. ऐ बनाफल वंश के सपूतो ! चन्देलों की नाव अब डूब रही है. चन्देलों का नाम अब मिटा जाता है. अब मौका है कि तुम तलवारे हाथ में लो. अगर इस मौके पर तुमने डूबती हुई नाव को न सम्हाला तो तुम्हें हमेशा के लिए पछताना पड़ेगा क्योंकि इस नाम के साथ तुम्हारा और तुम्हारे नामी बाप का नाम भी डूब जाएगा. आल्हा ने रुखेपन से जवाब दिया—हमें इसकी अब कुछ परवाह नहीं है. 

हमारा और हमारे बाप का नाम तो उसी दिन डूब गया, जब हम बेकसूर महोबे से निकाल दिए गए. महोबा मिट्टी में मिल जाय, चन्देलों को चिराग गुल हो जाय, अब हमें जरा भी परवाह नहीं है. क्या हमारी सेवाओं का यही पुरस्कार था जो हमको दिया गया? हमारे बाप ने महोबे पर अपने प्राण न्यौछावर कर दिये, हमने गोड़ों को हराया और चन्देलों को देवगढ़ का मालिक बना दिया. हमने यादवों से लोहा लिया और कठियार के मैदान में चन्देलों का झंडा गाड़ दिया. मैंने इन्ही हाथों से कछवाहों की बढ़ती हुई लहर को रोका. 

गया का मैदान हमीं ने जीता, रीवॉँ का घमण्ड हमीं ने तोड़ा. मैंने ही मेवात से खिराज लिया. हमने यह सब कुछ किया और इसका हमको यह पुरस्कार दिया गया है? मेरे बाप ने दस राजाओं को गुलामी का तौक पहनाया. मैंने परमाल की सेवा में सात बार प्राणलेवा जख्म खाए, तीन बार मौत के मुँह से निकल आया. मैने चालीस लड़ाइयॉँ लड़ी और कभी हारकर न आया. ऊदल ने सात खूनी मार्के जीते. हमने चन्देलों की बहादुरी का डंका बजा दिया. चन्देलों का नाम हमने आसमान तक पहुँचा दिया और इसके यह पुरस्कार हमको मिला है? परमाल अब क्यों उसी दगाबाज माहिल को अपनी मदद के लिए नहीं बुलाते जिसकों खुश करने के लिए मेरा देश निकाला हुआ था ! जगना ने जवाब दिया—आल्हा ! यह क्षत्रियों की बातें नहीं हैं. 

तुम्हारे बाप ने जिस राज पर प्राण न्यौछावर कर दिये वही राज अब दुश्मन के पांव तले रौंदा जा रहा है. उसी बाप के बेटे होकर भी क्या तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? वह राजपूत जो अपने मुसीबत में पड़े हुए राजा को छोड़ता है, उसके लिए नरक की आग के सिवा और कोई जगह नहीं है. तुम्हारी मातृभूमि पर बर्बादी की घटा छायी हुई हैं. तुम्हारी माऍं और बहनें दुश्मनों की आबरु लूटनेवाली निगाहों को निशाना बन रही है, क्या अब भी तुम्हारे खून में जोश नहीं आता? अपने देश की यह दुर्गत देखकर भी तुम कन्नौज में चैन की नींद सो सकते हो? देवल देवी को जगना के आने की खबर हुई. असने फौरन आल्हा को बुलाकर कहा—बेटा, पिछली बातें भूल जाओं और आज ही महोबे चलने की तैयारी करो. 

आल्हा कुछ जबाव न दे सका, मगर ऊदल झुँझलाकर बोला—हम अब महोबे नहीं जा सकते. क्या तुम वह दिन भूल गये जब हम कुत्तों की तरह महोबे से निकाल दिए गए? महोबा डूबे या रहे, हमारा जी उससे भर गया, अब उसको देखने की इच्छा नहीं हे. अब कन्नौज ही हमारी मातृभूमि है. राजपूतनी बेटे की जबान से यह पाप की बात न सुन सकी, तैश में आकर बोली—ऊदल, तुझे ऐसी बातें मुंह से निकालते हुए शर्म नहीं आती ? काश, ईश्वर मुझे बॉँझ ही रखता कि ऐसे बेटों की मॉँ न बनती. क्या इन्हीं बनाफल वंश के नाम पर कलंक लगानेवालों के लिए मैंने गर्भ की पीड़ा सही थी? नालायको, मेरे सामने से दूर हो जाओं. 

मुझे अपना मुँह न दिखाओं. तुम जसराज के बेटे नहीं हो, तुम जिसकी रान से पैदा हुए हो वह जसराज नहीं हो सकता. यह मर्मान्तक चोट थी. शर्म से दोनों भाइयों के माथे पर पसीना आ गया. दोनों उठ खड़े हुए और बोले- माता, अब बस करो, हम ज्यादा नहीं सुन सकते, हम आज ही महोबे जायेंगे और राजा परमाल की खिदमत में अपना खून बहायेंगे. हम रणक्षेत्र में अपनी तलवारों की चमक से अपने बाप का नाम रोशन करेंगे. हम चौहान के मुकाबिले में अपनी बहादुरी के जौहर दिखायेंगे और देवल देवी के बेटों का नाम अमर कर देंगे.

दोनों भाई कन्नौज से चले, देवल भी साथ थी. जब वह रुठनेवाले अपनी मातृभूमि में पहुँचे तो सूखें धानों में पानी पड़ गया, टूटी हुई हिम्मतें बंध गयीं. एक लाख चन्देल इन वीरों की अगवानी करने के लिए खड़े थे. बहुत दिनों के बाद वह अपनी मातृभूमि से बिछुड़े हुए इन दोनों भाइयों से मिले. ऑंखों ने खुशी के ऑंसू बहाए. राजा परमाल उनके आने की खबर पाते ही कीरत सागर तक पैदल आया. आल्हा और ऊदल दौड़कर उसके पांव से लिपट गए. 

तीनों की आंखों से पानी बरसा और सारा मनमुटाव धुल गया. दुश्मन सर पर खड़ा था, ज्यादा आतिथ्य-सत्कार का मौकर न था, वहीं कीरत सागर के किनारे देश के नेताओं और दरबार के कर्मचारियों की राय से आल्हा फौज का सेनापति बनाया गया. वहीं मरने-मारने के लिए सौगन्धें खाई गई. वहीं बहादुरों ने कसमें खाई कि मैदान से हटेंगे तो मरकर हटेंगें. वहीं लोग एक दूसरे के गले मिले और अपनी किस्मतों को फैसला करने चले. 

आज किसी की ऑंखों में और चेहरे पर उदासी के चिन्ह न थे, औरतें हॅंस-हँस कर अपने प्यारों को विदा करती थीं, मर्द हँस-हँसकर स्त्रियों से अलग होते थे क्योंकि यह आखिरी बाजी है, इसे जीतना जिन्दगी और हारना मौत है. उस जगह के पास जहॉँ अब और कोई कस्बा आबाद है, दोनों फौजों को मुकाबला हुआ और अठारह दिन तक मारकाट का बाजार गर्म रहा. खूब घमासान लड़ाई हुई. पृथ्वीराज खुद लड़ाई में शरीक था. दोनों दल दिल खोलकर लड़े. वीरों ने खूब अरमान निकाले और दोनों तरफ की फौजें वहीं कट मरीं. तीन लाख आदमियों में सिर्फ तीन आदमी जिन्दा बचे-एक पृथ्वीराज, दूसरा चन्दा भाट तीसरा आल्हा. 

पृथ्वीराज के शब्द भेदी बाण से उदल की मौत हुई .उदल की मौत से आल्हा समझ गया की इस धरती से जाने का समय आ गया है. उसने अपने गुरू गोरखनाथ जी का दिया हुया बिजुरिया नामक दिव्याश्त्र हाथ मे लेकर प्रथ्वीराज को मारने चल पड़े. आल्हा को आता देखकर प्रथ्वीराज का सेनापति चंदरबरदई ने प्रथ्वीराज से कहा राजा आल्हा के समान इस धरती पर कोई दूसरा वीर नहीं है यदि ज़िंदा रहना चाहते हो तो आल्हा के सामने हतियार मत उठाना. प्रथ्वीराज ने आल्हा के सामने हाथ जोड़ लिए . 

इसी समय वहाँ पर गुरु गोरखनाथ आगाए उन्होने आल्हा से कहा ये दिव्यास्त्र धरती के साधारण मनुस्यों पर चलाने के लिए नहीं है और बे आल्हा को अपने साथ सा शरीर स्वर्ग ले गए. बैरागढ़ अकोढ़ी गाँव ज़िला जालौन मे आल्हा की गाड़ी हुई एक सांग आज भी है. जो माता शारदा के मंदिर के प्रांगड़ मे है. माता के मंदिर मे आज भी सुबह पुजारियों को दरवाजे खोलने पर दो फूल चढ़े मिलते है. कहते है ये फूल आल्हा चढ़ाते है. काफी लोगों ने सच्चाई पता करने की कोसिस की. लेकिन जो रात मे मंदिर मे रुका बो सुबह ज़िंदा नहीं मिला. आप भी जाकर सच्चाई पता कर सकते है.

ऐसी भयानक अटल और निर्णायक लड़ाई शायद ही किसी देश और किसी युग में हुई हो. दोनों ही हारे और दोनों ही जीते. चन्देल और चौहान हमेशा के लिए खाक में मिल गए क्योंकि थानेसर की लड़ाई का फैसला भी इसी मैदान में हो गया. चौहानों में जितने अनुभवी सिपाही थे, वह सब औरई में काम आए. शहाबुद्दीन से मुकाबला पड़ा तो नौसिखिये, अनुभवहीन सिपाही मैदान में लाये गये और नतीजा वही हुआ जो हो सकता था. 

जनता में अब तक यही विश्वास है कि वह जिन्दा है. लोग कहते हैं कि वह अमर हो गया. यह बिल्कुल ठीक है क्योंकि आल्हा सचमुच अमर है अमर है और वह कभी मिट नहीं सकता, उसका नाम हमेशा कायम रहेगा.

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1 comment:

  1. भारतीय इतिहास मे ऐसे अनेकों वीर एवम वीरांगनाओ की कथाएँ है जिन्हें सुनकर आज भी मन जोश से भर उठता है.आज हम ऐसे ही दो वीर भाई आल्हा-ऊदल की गाथा, alha udal ki kahani आल्हा-ऊदल स्टोरी, आल्हा-ऊदल और पृथ्वीराज, आल्हा-ऊदल जंग की जानकारी लाए हैं.

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