Stories By Kamleshwar-garmiyon ke din |
गर्मियों के दिन
- कमलेश्वर
Hindi stories By kamleshwar-चुंगी-दफ्तर खूब रंगा-चुंगा है. उसके फाटक पर इन्द्रधनुषी आकार के बोर्ड लगे हुए हैं. सैयदअली पेण्टर ने बड़े सधे हाथ से उन बोर्डों को बनाया है. देखते-देखते शहर में बहुत-सी दुकानें हो गई हैं, जिन पर साइनबोर्ड लटक गए हैं. साइनबोर्ड लगाना यानि औकात का बढ़ाना.
बहुत दिन पहले जब दीनानाथ हलवाई की दुकान पर पहला साइनबोर्ड लगा था, तो वहां दूध पीनेवालों की संख्या एकाएक बढ़ गई थी. फिर बाढ़ आ गई, और नये-नये तरीके और बेलबूटे ईजाद किए गए. ‘ऊं’ या ‘जयहिन्द’ से शुरू करके ‘एक बार अवश्य परीक्षा कीजिए’ या ‘मिलावट साबित करने वाले को सौ रुपए नकद इनाम’ की मनुहारों या ललकारों पर लिखावट समाप्त होने लगी.
चुंगी-दफ्तर का नाम तीन भाषाओं में लिखा है. चेयरमैन साहब बड़े अक्किल के आदमी है., उनकी सूझ-बूझ का डंका बजता है, इसलिए हर साइनबोर्ड हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी में लिखा जाता है. दूर-दूर के नेता लोग भाषण देने आते हैं, देश-विदेश के लोग आगरा का ताजमहल देखकर पूरब की ओर आते हुए यहां से गुज़रते है..... उन पर असर पड़ता है भाई.
और फिर मौसम की बात: मेले-तमाशे के दिनों में हलवाई, जुलाई-अगस्त में किताब-कागजवालों, सहालग में कपड़ेवालों और खराब मौसम में वैद्य-हकीमों के साइनबोर्डों पर नया रोगन चढ़ता हैं शुद्ध देशी घी वाले सबसे अच्छे, जो छप्परों के भीतर दीवार पर गेरू या हिरमिजी से लिखकर काम चला देते हैं. इसके बगैर काम नहीं चलता.
अहमियत बताते हुए वैद्य जी ने कहा, ”बगैर पोस्टर चिपकाए सिनेमावालों का भी काम नहीं चलता. बड़े-बड़े शहरों में जाइए, मिट्टी का तेल बेचनेवाले की दुकान पर साइनबोट मिल जाएगा. बड़ी जरूरी चीज़ है. बाल-बच्चों के नाम पर साइनबोट हैं, नहीं तो नाम रखने की जरूरत क्या है? साइनबोट लगाके सुखदेव बाबू कम्पौण्डर से डाॅक्टर हो गए, बैग लेके चलने लगे.“
पास बैठे रामचरन ने एक और नये चमत्कार की खबर दी, ”कल उन्होंने बुधईवाला इक्का-घोड़ा खरीद लिया....“
”हांकेगा कौन?“ टीन की कुर्सी पर प्राणायाम की मुद्रा में बैठे पंडित ने पूछा. ”ये सब जेब कतरने का तरीका है,“ वैद्यजी का ध्यान इक्के की तरफ अधिक था, ”मरीज़ से किराया वसूल करेंगे. सईस को बख्शीश दिलाएंगे, बड़े शहरों के डाॅक्टरों की तरह. इसी से पेशे की बदनामी होती है. पूछो, मरीज का इलाज करना है कि रोब-दाब दिखाना है.
अंग्रेजी आले लगाकर मरीज की आधी जान पहले सुखा डालते हैं. आयुर्वेदी नब्ज़ देखना तो दूर, चेहरा देखके रोग बता दे. इक्का-घोड़ा इसमें क्या करेगा? थोड़े दिन बाद देखना, उनका सईस कम्पौण्डर हो जाएगा...“ कहते-कहते वैद्यजी बड़ी घिसी हुई हंसी में हंस पड़े. फिर बोले, ”कौन क्या कहे भाई! डाॅक्टरी तो तमाशा बन गई है. वकील-मुख्तार के लड़के डाॅक्टर होने लगे! खून और संस्कार से बात बनती है... हाथ में जस आता है.
वैद्य का लड़का वैद्य होता है. आधी विद्या लड़कपन में जड़ी-बूटियां कूटते-पीसते आ जाती है. तोला, माशा, रत्ती का ऐसा अंदाज़ हो जाता है कि औषधि अशुद्ध हो ही नहीं सकती; औषधि का चमत्कार उसके बनाने की विधि में है...धन्वन्तरि...“ वैद्यजी आगे कहने जा ही रहे थे कि एक आदमी को दुकान की ओर आते देख चुप हो गए और बैठे हुए लोगों की ओर कुछ इस तरह देखने-सुनने लगे कि वे गप्प लड़ानेवाले फालतू आदमी न होकर उनके रोगी हों.
आदमी के दुकान पर चढ़ते ही वैद्यजी ने भांप लिया! कुंठित होकर उन्होंने उसे देखा और उदासीन हो गए. लेकिन दुनिया-दिखवा भी कुछ होता है! हो सकता है, कल यही आदमी बीमार पड़ जाए या इसके घर में किसी को रोग घेर ले! इसलिए अपना व्यवहार और पेशे की गरिमा चैकस रहनी चाहिए! अपने को बटोरते हुए उन्होंने कहा, ”कहो भाई, राजी-खुशी!“ उस आदमी ने जवाब देते हुए सीरे की एक कनस्टरिया सामने कर दी, ”यह ठाकुर साहब ने रखवाई है. मंडी से लौटते हुए लेते जाएंगे. एक-डेढ़ बजे के करीब.“
”उस वक्त दुकान बन्द रहेगी,“ वैद्यजी ने व्यर्थ के काम से ऊबते हुए कहा, ”हकीमों-वैद्यों की दुकानें दिन-भर नहीं खुली रहतीं. व्यापारी थोड़े ही हैं भाई!“ पर फिर किसी अन्य दिन और अवसर की आशा ने जैसे ज़बरदस्ती कहलवाया, ”खैर,“ उन्हें दिक्कत नहीं होगी, हम नहीं होंगे तो बगलवाली दुकान से उठा लें. मैं रखता जाऊंगा.“
आदमी के जाते ही वैद्य जी बोले, ”शराब-बन्दी से क्या होता है? जब से र्हुइ तब से कच्ची शराब की भटिठयां घर-घर चालू हो गईं. सीरा घी के भाव बिकने लगा. और इन डाॅक्टरों को क्या कहिए....इनकी दुकानें हौली बन गई है. लैस न्स मिलता है दवा की तरह इस्तेम ाल करने का, पर खुले आम जिंजर बिकता है. कहीं कुछ नहीं होता. हम भंग-अफीम की एक पुड़िया चाहें तो तफसील देनी पड़ती है.“
”जिम्मेदारी की बात है,“ पंडितजी ने कहा. ”अब जिम्मेदार वैद्य ही रह गए हैं. सबकी रजिस्टरी हो चुकी, भाई! ऐरे-गैरे पचकल्यानी जितने घुस आए थे, उनकी सफाई हो गई. अब जिनके पास रजिस्टरी होगी वह वैद्यक कर सकता है. चूरनवाले वैद्य बन बैठे थे... सब खतम हो गए. लखनऊ में सरकारी जांच-पड़ताल के बाद सही मिली है....“
वैद्यजी की बात में रस न लेते हुए पंडित उठ गए. वैद्यजी ने भीतर की तरफ कदम बढ़ाए और औषधालय का बोर्ड लिखते हुए चन्दर से बोले, ”सफेदा गाढ़ा है बाबू, तारपीन मिला लो.“ और वे एक बोतल उठा लाए, जिस पर अशोकारिष्ट का लेबल था.
इसी तरह न जाने किन-किन औषधियों की शरीर-रूपी बोतलों में किस-किस पदार्थ की आत्मा भरी है. सामने की अकेली अलमारी में बड़ी-बड़ी बोतलें रखी हैं जिन पर तरह-तरह के अरिष्टों और आसवों के नाम चिपके हैं. सिर्फ पहली कतार मंे वे शीशियां खड़ी हैं..... उनके पीछे ज़रूरत का और सामान है.
सामने की मेज पर सफेद शीशियों की एक पंक्ति है, जिसमें कुछ स्वादिष्ट चूरन...लवणभास्कर आदि हैं, बाकी में जो कुछ भरा है उसे केवल वैद्यजी जानते हैं.
तारपीन का तेल मिलाकर चन्दर आगे लिखने लगा - ‘प्रो.कविराज नित्यानन्द तिवारी’ ऊपर की पंक्ति ‘श्री धन्वन्तरि औषधालय’ स्वयं वैद्यजी लिख चुके थे. सफेदे के वे अच्छर ऐसे लग रहे थे जैसे रुई के फाहे चिपका दिए हों. ऊपर जगह खाली देखकर वैद्यजी बोले, ”बाबू ऊपर जयहिन्द लिख देना.... और यह जो जगह बच रही है, इसमें एक ओर द्राक्षासव की बोतल, दूसरी ओर खरल की तसवीर.... आर्ट हमारे पास मिडिल तक था लेकिन यह तो हाथ सधने की बात है.“
चन्दर कुछ ऊब सा रहा था. खामख्वाह पकड़ा गया. लिखावट अच्छी होने का यह पुरस्कार उसकी समझ में नहीं आ रहा था. बोला, ”किसी पेण्टर से बनवाते... अच्छा-खासा लिख देता, वो बात नहीं आएगी....“ अपना पसीना पोंछते हुए उसने कूची नीचे रख दी.
”पांच रुपये मांगता था बाबू.... दो लाइनों के पांच रुपये! अब अपनी मेहनत के साथ यह साइनबोट दस-बारह आने का पड़ा, ये रंग एक मरीज़ दे गया. बिजली कम्पनी का पेण्टर बदहज़मी से परेशान था. दो खुराकें बनाकर दे दीं, पैसे नहीं लिए. सो वह दो-तीन रंग और थोड़ी-सी वार्निश दे गया. दो बक्से रंग गए... यह बोट बन गया और एकाध कुर्सी रंग जाएगी....तुम बस इतना लिख दो, लाल रंग का शेड हम देते रहेंगे.... हाशिया तिरंगा खिलेगा?“ वैद्यजी ने पूछा और स्वयं स्वीकृति भी दे दी.
चन्दर गर्मी से परेशान था. जैसे-जैसे दोपहरी नज़दीक आती जा रही थी, सड़क पर धूल और लू का ज़ोर बढ़ता जा रहा था, मुलाहिजे में चन्दर मना नहीं कर पाया. पंखे से अपनी पीठ खुजलाते हुए वैद्यजी ने उजरत के कामवाले पटवारियों के बड़े-बड़े रजिस्टर निकालकर फैलाने शुरू किए.
सूरज की तपिश से बचने के लिए दुकान का एक किवाड़ भेड़कर वैद्यजी खाली रजिस्टरों पर खसरा-खतौनियों से नकल करने लगे. चन्दर ने अपना पिंड छुड़ाने के लिए पूछा, ”ये सब क्या है वैद्यजी?“
वैद्यजी का चेहरा उतर गया, बोले, ”खाली बैठने से अच्छा है कुछ काम किया जाए, नये लेखपालों को काम-धाम आता नहीं, रोज़ कानूनगो या नायब साहब से झाड़ें पड़ती हैं...झक मार के उन लोगों को यह काम उजरत पर कराना पड़ता है. अब पुराने घाघ पटवारी कहां रहे जिनके पेट में गंवई कानून बसता था. रोटियां छिन गई बेचारों की; लेकिन सही पूछो तो अब भी सारा काम पुराने पटवारी ही ढो रहे हैं.
नये लेखपालों की तनख्वाह का सारा रुपया इसी उजरत में निकल जाता है. पेट उनका भी है... तियां-पांचा करके किसानों से निकाल लाते हैं. लाएं न तो खाएं क्या? दो-तीन लेखपाल अपने हैं, उन्हीं से कभी-कभार हलका-भारी काम मिल जाता है. नकल का काम, रजिस्टर भरने हैं!“
बाहर सड़क वीरान होती जा रही थी. दफ्तर के बाबू लोग जा चुके थे. सामने चुंगी में खस की टट्टियों पर छिड़काव शुरू हो गया. दूर हर-हराते पीपल का शोर लू के साथ आ रहा था. तभी एक आदमी ने किवाड़ से भीतर झांका.
वैद्यजी की बात, शायद जो क्षण-दो-क्षण बाद दर्द से बोझिल हो जाती, होती गई. उनकी निगाह ने आदमी पहचाना और वे सतर्क हो गए. फौरन बोले, ”एक बोट आगरा से बनवाया है, जब तक नहीं आता, इसी से काम चलेगा; फुर्सत कहां मिलती है, जो इस सबमें सर खपाएं....“ और एकदम व्यस्त होते हुए उन्होंने उस आदमी से प्रश्न किया, ”कहो भई, क्या बात है?“
”डाकदरी सरटीफिकेट चाहिए... कोसमा टेशन पर खलासी हैंगे साब.“ रेलवे की नीली वर्दी पहने वह खलासी बोला.
उसकी ज़रूरत का पूरा अन्दाज़ करते हुए वैद्यजी बोले, ”हां, किस तारीख से कब तक का चाहिए?“
”पन्द्रह दिन पहले आए थे साब, सात दिन को और चाहिए.“ कुछ हिसाब जोड़कर वैद्यजी बोले, ”देखो भाई सर्टीफिकेट पक्का करके देंगे, सरकार का रजिस्टर नम्बर देंगे, रुपैया चार लगेंगे.“ वैद्यजी ने जैसे खुद चार रुपये पर उसके भड़क जाने का अहसास करते हुए कहा, ”अगर पिछला न लो तो दो रुपये में काम चल जाएगा....“
खलासी निराश हो गया. लेकिन उसकी निराशा से अधिक गहन हताशा वैद्यजी के पसीने से नम मुख पर व्याप गई. बड़े निरपेक्ष भाव से खलासी बोला, ”सोबरन सिंह ने आपके पास भेजा था.“ उसके कहने से कुछ ऐसा लगा जैसे यह उसका काम न होकर सोबरन सिंह का काम हो. पर वैद्यजी के हाथ नब्ज आ गई, बोले, ”वो हम पहले ही समझ गये थे. बगैर जान-पहचान के हम देते भी नहीं, इज़्ज़त का सवाल है.
हमें क्या मालूम तुम कहां रहे, क्या करते हो? अब सोचने की बात है.... विश्वास पर जोखिम उठा लेंगे..... पन्द्रह दिन पहले से तुम्हारा नाम रजिस्टर में चढ़ाएंगे, रोग लिखेंगे... हर तारीख पर नाम चढ़ाएंगे, तब कहीं काम बनेगा! ऐसे घर की खेती नहीं है....“ कहते-कहते उन्होंने चन्दर की ओर मदद के लिए ताका. चन्दर ने साथ दिया, ”अब इन्हें क्या पता कि तुम बीमार रहे कि डाका डालते रहे...सरकारी मामला है...“
”पांच से कम में दुनिया-छोर का डाॅक्टर नहीं दे सकता....“ कहते-कहते वैद्यजी ने सामने रखा लेखपाल वाला रजिस्टर खिसकाते हुए जोश में कहा, ”अरे, दम मारने की फर्सत नहीं है. ये देखा, देखते हो नाम...! मरीज़ों को छोड़कर सरकार को दिखाने के लिए यह तफसीलवार रजिस्टर बनाने पड़ते हैं.
एक-एक रोगी का नाम, मर्ज, आमदनी... इन्हीं में तुम्हारा नाम चढ़ाना पड़ेगा! अब बताओ कि मरीजों को देखना ज़्यादा ज़रूरी है कि दो-चार रुपये के लिए सर्टीफिकेट देकर इस सरकारी पचड़े में फंसना.“ कहते हुए उन्होंने तफसीलवाला रजिस्टर एकदम बन्द करके सामने से हटा दिया और केवल उपकार कर सकने के लिए तैयार होने जैसी मुद्रा बनाकर कलम से कान कुरेदने लगे.
रेलवे का खलासी एक मिनट तक बैठा कुछ सोचता रहा और वैद्यजी को सर झुकाए अपने काम में मशगुल देख, दुकान से नीचे उतर गया. एकदम वैद्यजी ने अपनी गलती महसूस की, लगा कि उन्होंने बात गलत जगह तोड़ दी और ऐसी तोड़ी की टूट गई. और कुछ एकाएक समझ में न आया तो उसे पुकारकर बोले, ”अरे सुनो, ठाकुर सोबरन सिंह से हमारी जैरामजी की कह देना...उनके बाल-बच्चे तो राजी-खुशी हैं?“
”सब ठीक-ठाक है.“ रुककर खलासी ने कहा. उसे सुनाते हुए वैद्यजी चन्दर से बोले, ”दस गांव-शहर छोड़के ठाकुर सोबरन सिंह इलाज के लिए यहीं आते हैं. भई, उनके लिए हम भी हमेशा हाज़िर रहे...“
चन्दर ने बोर्ड पर आखिरी अक्षर समाप्त करते हुए पूछा, ”चला गया?“ ”लौट-फिरके आएगा....“ वैद्यजी ने जैसे अपने को समझाया, पर उसके वापस आने की अनिवार्यता पर विश्वास करते हुए बोले, ‘गंवई-गांव के वैद्य और वकील एक ही होते हैं. सोबरन सिंह ने अगर हमारा नाम उसे बताया है तो ज़रूर वापस आएगा...गांववालों की मुर्री ज़रा मुश्किल से खुलती है. कहीं बैठ के सोचे-समझेगा, तब आएगा...“
”और कहीं से ले लिया तो?“ चन्दर ने कहा तो वैद्यजी ने बात दी, ”नहीं, नहीं बाबू.“ कहते हुए उन्होंने बोर्ड की ओर देखा और प्रशंसा से भरकर बोले, वाह भाई चन्दर बाबू! साइनबोट जंच गया.... काम चलेगा. ये पांच रुपए पेण्टर को देकर मरीजों से वसूल करना पड़ता. इक्का, घोड़ा और ये खर्चा! बात एक है. चाहे नाक सामने से पकड़ लो, चाहे घुमाकर.
सैयदअली के हाथ का लिखा बोट रोगियों को चंगा तो कर नहीं देता. अपनी-अपनी समझ की बात है. कहते हुए वे धीरे से हंस पड़े. पता नहीं, वे अपनी बात समझकर अपने पर ही हंसे थे या दूसरे पर.
तभी एक आदमी ने प्रवेश किया. सहसा लगा कि खलासी आ गया. पर वह पांडु-रोगी था. देखते ही वैद्यजी के मुख पर सन्तोष चमक आया. वे भीतर गए. एक तावीज़ लाते हुए बोले, ”अब इसका असर देखो. बीस-पच्चीस रोज़ में इसका चमत्कार दिखाई पड़ेगा.“ पांडु-रोगी की बांह में तावीज़ बांधकर और उसके कुछ आने पैसे जेब में डालकर वे गम्भीर होकर बैठ गए.
रोगी चला गया तो फिर बोले, ”यह विद्या भी हमारे पिताजी के पास थी. उनकी लिखी पुस्तकें पड़ी हैं.... बहुत सोचता हूं, उन्हें फिर से नकल कर लूं. ..बडे़ अनुभव की बातें हैं. विश्वास की बात, बाबू. एक चुटकी धूल से आदमी चंगा हो सकता है. होमोपैथक और भला क्या है? एक चुटकी शक्कर. जिस पर विश्वास जम जाए, बस.“
चन्दर ने चलते हुए कहा, ”अब तो औषधालय बन्द करने का समय हो गया, खाना खाने नहीं जाइएगा?“
”तुम चलो, हम दस-पांच मिनट बाद आएंगे.“ वैद्यजी ने तहसीलवाला काम अपने आगे सरका लिया. दुकान का दरवाज़ा भटखुला करके बैठ गए. बाहर धूप की ओर देखकर दृष्टि चैंधिया जाती थी.
बगलवाले दूकानदार बच्चनलाल ने दुकान बन्द करके, घर जाते हुए वैद्य जी की दुकान खुली देखकर पूछा, ”आज खाना खाने नहीं गए...“
”हां, ऐसे ही एक जरूरी काम है. अभी थोड़ी देर में चले जाएंगे.“ वैद्यजी ने कहा और ज़मीन पर चटाई बिछाई; कागज़ रजिस्टर मेज़ से उठाकर नीचे फैला लिया. लेकिन गर्मी तो गर्मी पसीना थमता ही न था. रह-रहकर पंखा झेलते, फिर नकल करने लगते. कुछ देर मन मारकर काम किया, पर हिम्मत छूट गई.
उठकर पुरानी धूल पड़ी शीशियां झाड़ने लगे. उन्हें लाइन से लगाया. लेकिन गर्मी की दोपहर....समय स्थिर लगता था. एक बार उन्होंने किवाड़ों के बीच से मुंह निकालकर सड़क की ओर निहारा. एकाध लोग नज़र आये. उन आते-जाते लोगों की उपस्थिति से बड़ा सहारा मिल गया. भीतर आए, बोर्ड का तार सीधा किया और उसे दुकान के सामने लटका दिया. धन्वन्तरि औषधालय का बोर्ड दुकान की गर्दन में तावीज़ की तरह लटक गया.
कुछ समय और बीता. आखिर उन्होंने हिम्मत की. एक लोटा पानी पिया और जांघों तक धोती सरकाकर मुस्तैदी से काम में जुट गए. बाहर कुछ आहट हुई. चिन्ता से उन्होंने देखा.
”आज आराम करने नहीं गए वैद्यजी“ घर जाते हुए जान-पहचान के दुकानदार ने पूछा.
”बस जाने की सोच रहा हंू... कुछ काम पसर गया था, सोचा, करता चलूं...“ कहकर वैद्यजी दीवार से पीठ टिकाकर बैठ गए. कुरता उतारकर एक ओर रख दिया. इकहरी छत की दुकान आंच-सी तप रही थी.
वैद्यजी की आंखें बुरी तरह नींद से बोझिल हो रही थीं. एक झपकी आ गई...कुछ समय ज़रूर बीत गया था. नहीं रहा गया तो रजिस्टरों का तकिया बनाकर उन्होंने पीठ सीधी की. पर नींद...आती और चली जाती, न जाने क्या हो गया था!
सहसा एक आहट ने उन्हें चैंका दिया. आंखे खोलते हुए वे उठकर बैठ गए. बच्चनलाल दोपहर बिताकर वापस आ गया था.
”अरे आज आप अभी तक गए ही नहीं...“ उसने कहा. वैद्यजी ज़ोर-ज़ोर से पंखा झलने लगे. बच्चनलाल ने दुकान से उतरते हुए पूछा, ”किसी का इन्तज़ार है क्या हाँ, एक मरीज आने को कह गया है... अभी तक आया नहीं. वैद्यजी ने बच्चनलाल को जाते देखा तो बात बीच में तोड़कर चुप हो गए और अपना पसीना पोंछने लगे.
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