Motivational Story by Osho in hindi |
Motivational Story by Osho
यूनानी प्रेरक कथा— नार्सीसज्म शब्द का अर्थ क्या है, नार्सीसस की कहानी
एक यूनानी पुराण कथा है: नार्सीसस नाम का एक अति सुंदर युवा था. प्रतिध्वनि नाम की एक युवती के प्रेम में पड़ गया.
यह नाम भी विचारणीय है. व्यक्ति प्रतिध्वनियों के प्रेम में ही पड़ते हैं. जहां तुम्हें अपनी आवाज सुनाई पड़ती है, जहां तुम्हें अपने अहंकार को ही तृप्ति मिलती है, जहां तुम छुपे रूप में अपने को ही पाते हो, वहीं तुम्हारा प्रेम पैदा हो जाता है. तुम्हारा प्रेम तुम्हारे अहंकार का ही विस्तार है.
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प्रतिध्वनि भी उसके प्रेम में पड़ गई.
प्रतिध्वनि तो प्रेम में पड़ेगी ही, क्योंकि वह तुम्हारी ही आवाज की गूंज है. उसके तुमसे अलग होने की न तो कोई संभावना है, न उपाय है.
पर एक दिन एक दुर्घटना हो गई. होनी ही थी. क्योंकि प्रतिध्वनियों के धोखे में जो पड़ जाए--अपनी ही आवाज को सुन कर उसके ही प्रेम में पड़ जाए--उसके जीवन में दुर्घटना निश्चित है.
नार्सीसस जंगल में गया था. एक झील में, शांत झील में--हवा की लहर भी न थी--उसने स्वयं के प्रतिबिंब को देखा. वह मोहित हो गया.
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झील तो दर्पण थी. अपना ही चेहरा देखा; पर पहली बार देखा; वह इतना प्यारा था. और अपना चेहरा किसको प्यारा नहीं है? अपना ही चेहरा लोगों को प्यारा है. सम्मोहित हो गया नार्सीसस--जैसे जड़ हो गया. मोह जड़ता लाता है. हिलने में भी डरने लगा कि हिला तो कहीं प्रतिबिंब टूट न जाए. आंखें ठगी रह गईं. वहां से हटा ही नहीं.
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प्रतिध्वनि प्रतीक्षा करती रही. और जब नार्सीसस न लौटा तो प्रेम मर गया.
प्रतिध्वनि तो, तुम्हारी ही आवाज गुनगुनाते रहो, तो ही गूंज सकती है. जब तुम्हारी ही आवाज न गूंजी--थोड़ी देर प्रतिध्वनि गूंजती रहेगी पहाड़ों में, फिर खो जाएगी. नार्सीसस न लौटा, न लौटा.
कहते हैं, नार्सीसस खड़ा-खड़ा उस झील के किनारे ही जड़ हो गया--एक पौधा हो गया.
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नार्सीसस नाम का एक पौधा होता है. वह पौधा झीलों के पास, झरनों के पास, नदियों के पास पाया जाता है. तुम्हें कहीं वह पौधा मिल जाए तो गौर से देखना, तुम उसे सदा पानी में झांकता हुआ पाओगे; वह अपने प्रतिबिंब को देखता है.
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यह पुराण कथा बड़ी अदभुत है. अगर तुम अपने में ही ज्यादा मोहित हो गए तो चैतन्य खो जाता है; तब तुम आदमी नहीं रह जाते, पौधे हो जाते हो; तब तुम्हारी भीतर की मनुष्यता विलीन हो जाती है; तुम्हारे भीतर की आत्मा नकार हो जाती है--तुम वापस गिर जाते हो, तुम पतित हो जाते हो. पौधे का भी कोई स्वातंत्र्य है? मनुष्य स्वतंत्र है, चल सकता है.
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पौधा बंधा है; पैर नहीं हैं उसके पास, जड़ें हैं. यह नार्सीसस का पौधा हो जाना केवल इस बात की सूचना देता है कि जो व्यक्ति भी अहंकार के प्रतिबिंबों में उलझ जाएगा, उसके पैर भी नष्ट हो जाते हैं, जड़ें हो जाती हैं; वह रुक जाता है, उसकी गति ठहर जाती है; हिलने-डुलने की भी स्वतंत्रता खो जाती है.
और यही करीब-करीब सभी मनुष्यों के साथ होता है. उपनिषद कहते हैं, कोई पत्नी को थोड़े ही प्रेम करता है--पत्नी में, पत्नी के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है; कोई बच्चों को थोड़े ही प्रेम करता है--बच्चों में, बच्चों के द्वारा अपने को ही प्रेम करता है. बच्चे भी दर्पण हैं, पत्नी भी दर्पण है. और हर मनुष्य नार्सीसस है.
ऐसी मनुष्य की जो चित्त-दशा है, इससे और परम स्वातंत्र्य के तो द्वार कैसे खुलेंगे! जो थोड़ी सी स्वतंत्रता है, वह भी नष्ट हो जाती है. पंख लगने चाहिए थे कि तुम उड़ सकते परमात्मा की तरफ. पंख तो दूर, पैर भी खो जाते हैं. वृक्ष के बंधन को तुम समझते हो? हिल भी नहीं सकता जहां खड़ा है वहां से. रत्ती भर भी हिलना चाहे तो स्वतंत्रता नहीं है, गति नहीं है; जहां खड़ा है, वहां मजबूरी में है. वहां से हट नहीं सकता. आदमी हिल सकता है, चल सकता है. पक्षी उड़ सकता है.
लेकिन शरीर कितना ही हिल-चल सकता हो, तो भी सीमा है--थक जाएगा, थकान ही बंधन हो जाएगी. और पक्षी कितना ही उड़ सकता हो--मीलों भी, तो भी मीलों में कहीं आकाश नापा जाता है? थक जाएगा, शरीर की सीमा है. और स्वतंत्रता तो तभी स्वतंत्रता है, जब असीम हो. आत्मा की स्वतंत्रता चाहिए. आत्मा में पंख लगें, आत्मा उड़ सके--कि फिर कोई सीमा न हो, कहीं कोई दीवाल न रोके, कहीं कोई जंजीरें न हों. उस घड़ी को ही हमने मोक्ष कहा है.
ओशो
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