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नैतिक कहानियां— हितोपदेश की कहानियां-
हितोपदेश-hitopadesha
हितोपदेश की रचना श्री hitopadesha author नारायण पंडित ने की थी. श्री नारायण पंडित लिखित हितोपदेश भारत के प्राचीन लोक साहित्य का अमूल्य रत्न है. संसार के साहित्य में पशु पक्षियों की लोक कथाओ की शुरूआत हितोपदेश के साथ ही हुई थी.
हितोपदेश की शुरूआत
hitopadesha stories- भागीरथी के पवित्र तट पर पटना नाम का एक नगर था. किसी समय पर नगर पर राजा सुदर्शन का राज था. राजा सुदर्शन के पुत्र बहुत ही मुर्ख और व्यस्नी थे. उसे चिंता हुई कि उसकी मृत्यु के बाद उसके राज्य का क्या होगा. राजा सोचता था कि कई कुपुत्रो के स्थान पर एक पुत्र हो लेकिन गुणी हों. कुपुत्रों की अधिक संख्या भी आकाश के अगणित तारों की तरह निरर्थक होती है. एक ही सुपुत्र चंद्रमा की भांति अकेला की कुल को उज्ज्वल बना देता है.
इस समस्या से निपटने के लिए राजा ने एक विद्वानों की एक सभा बुलवाई. राजा ने विद्वानों का अभिनंदन किया और प्रस्ताव रखा कि जो भी विद्वान उसके पुत्रों को छह मास में विद्वान और कुशल राजनीतिज्ञ बना देगा उसे यथोचित पुरस्कार दिया जाएगा.
सभा के सब विद्वान जानते थे कि राजा के पुत्र मूर्ख है और विद्या से उनका कोई लेना देना नहीं है इसलिए कोई विद्वान आगे नहीं आया. उसी सभा में विष्णु शर्मा नाम का एक विद्वान भी आया था. उसने आगे बढ़कर राजा को वचन दिया कि वह छह मास में उनके पुत्रों को कुशल राजनीतिज्ञ बना देगा.
राजा ने अपने पुत्रों को विष्णु शर्मा के साथ विदा किया. विष्णुशर्मा ने इन राजपुत्रों को जिन मनोरंजक कहानियों द्वारा राजनीति और व्यवहार नीति की शिक्षा दी, उन कथाओं और नीति वाक्यों को हितोपदेश कहा जाता है.
Hitopadesha chapters- इस कथा में प्रथम भाग को मित्रलाभ कहा जाता है. इसे हितोपदेश का प्रथम अध्याय भी माना जाता है.
Hitopadesha Mitralabha- मित्र लाभ
गोदावरी के तट पर सेमर का एक विशाल वृक्ष था. उसकी शाखाओं पर भांति—भांति के पक्षी रहते थे. उसी वृक्ष पर लघुपतनक नाम का एक कौवा भी रहता था. एक दिन प्रात: काल उसने एक शिकारी को देखा. शिकारी को देखकर उसे लगा कि उसका काल चला आ रहा है.
शिकारी अपने मार्ग पर आगे बढ़ गया. लघुपतनक ने उसका पीछा किया और यह देखने का प्रयास किया कि शिकारी आखिर कर क्या रहा है. उसने देखा कि शिकारी कुछ दूर चलकर एक वृक्ष के नीचे ठहर गया. उसने अपनी पोटली खोली और कुछ चावलों को पृथ्वी पर बिखेर दिया. फिर जाल फैलाया और पक्षियों के फंसने की प्रतीक्षा में पास ही छिपकर बैठ गया.
थोड़ी ही देर बाद कबूतरों का सरदार चित्रग्रीव अपने परिवार के साथ उड़ता हुआ उसी मार्ग से निकला. वहां पृथ्वी पर बिखरे चावलों को देखकर कबूतर ठहर गए और चावल खाने को लपके. सरदार चित्रग्रीव उन कबूतरों में सबसे अधिक चतुर था. उसने कबूतरों से कहा— साथियों इस निर्जन वन में चावलां के दाने देखकर मुझे विस्मय होता है. अवश्य ही दाल में कुछ काला है. हमारे लिए यही उचित है कि हम इन्हें ऐसे ही छोड़कर आगे बढ़ जाएं. इन दानों के लालच में हमें कहीं लेने के देने न पड़ जाएं.
यह नहीं हो सकता. सब कबूतर एक स्वर में बोलें.
परोसी हुई थाली से कैसे मूंह मोड़ा जाए.
एक और कबूतर ने भी चित्रग्रीव का समर्थन करते हुए कहा कि — भाईयों मैं फिर कहता हूं कि इन दानों से दूर ही रहना चाहिए. कहीं लोभ में फंसकर हमारा भी वही हाल न हो जो लोभ के कारण एक ही राहगीर का हुआ था.
राहगीर की क्या कथा है? कबूतरों ने पूछा.
चित्रग्रीव ने राहगीर की कथा सुनाई.
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