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manikarnika history in hindi
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मर्णिकर्णिका की कहानी-लक्ष्मीबाई की जीवनी

मर्णिकर्णिका फिल्म को लेकर बहुत चर्चा है. ज्यादातर लोग यह जानना चाहते हैं कि आखिर मर्णिकर्णिका कौन है? मणिकर्णिका दरअसल झांसी की रानी लक्ष्मीबाई का असली नाम है. मणिकर्णिका से लक्ष्मीबाई क्यों बनी? इसके पीछे दअरसल झांसी की एक परम्परा है. झांसी में विवाह के बाद कन्या का नाम बदल दिया जाता है, इसी वजह से विवाह के बाद मणिकर्णिका का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई कर दिया गया. 

Manikarnika the queen of Jhansi- लक्ष्मी बाई की जीवनी

रानी लक्ष्मी बाई का जीवन बहुत ही संघर्षों से भरा रहा. वे बहुत बहादुर महिला थी. उन्होंने संघर्षों से कभी हार नहीं मानी. वे अपनी जीवन के आखिरी सांस तक लड़ती रही और वीरगति को प्राप्त हुईं.


रानी लक्ष्मी बाई का जन्म 19 नवम्बर 1858 को पवित्र शहर वाराणसी में हुआ. उनका परिवार एक मराठी खरड़े ब्राह्मण वंश से सम्बन्ध रखता था. परिवार ने उनका नाम मणिकर्णिका तांबे रखा. उनके पिता उन्हें प्यार से मनु बुलाते थे. मर्णिकर्णिका के पिता का नाम मोरोपंत तांबे था और माता का नाम भागीरथी बाई. उनका सम्बन्ध नाना साहब पेशवा के परिवार से था.

मणिकर्णिका यानी लक्ष्मीबाई का बचपन नाना साहब के यहां ही बीता. नाना साहब उन्हें प्यार से छबीली बुलाते थे. मणिकर्णिका को बचपन से ही युद्धकला से बहुत प्रेम था. बहुत कम उम्र में ही उन्होंने तलवार बाजी, घुड़सवारी और मलखम्भ में दक्षता प्राप्त कर ली. सारंगी, पवन और बादल उनके प्रिय घोड़े थे.

नाना साहब और तात्यां टोपे मणिकर्णिका के बचपन के मित्र बने जिन्होंने आगे चलकर उनके जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया.   

मणिकर्णिका कैसे बनी रानी लक्ष्मीबाई?

मणिकर्णिका का 1842 में विवाह झांसी के महाराज गंगाधर राव के साथ हुआ. ससुराल में उनका नामकरण किया गया और उन्हें झांसी की लक्ष्मी के तौर पर विभूषित किया गया. प्रजा उन्हें रानी लक्ष्मीबाई jhansi ki rani के नाम से पुकारने लगी. रानी लक्ष्मीबाई को राजा गंगाधर राव से एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जिसका नाम दामोदर राव रखा गया लेकिन बीमारी के कारण ही दामोदार राव की 4 महीने बाद मृत्यु हो गई. बेटे की मृत्यु का आघात राजा सह न सके और अगले ही दिन वे भी स्वर्ग सिधार गए.

राजा गंगाधर राव ने वंश को आगे बढ़ाने के लिए रानी लक्ष्मीबाई ने एक पुत्र गोद लिया जिसका नाम आनंद राव था, जिसे बदलकर दामोदर राव कर दिया गया. यह घटना 1953 में घटित हुई. उस वक्त झांसी अंग्रेजों के अधीन था. भारत के वायसराय लाॅर्ड डलहौजी अब पूरे भारत के राजाओं का उन्मूलन कर ब्रिटिश रानी का एकछत्र राज स्थापित करना चाहता था. अपने इस मंसूबे को पूरा करने के लिए उसने नया कानून बनाया, जिसे नाम दिया गया-गोद निषेध कानून.


डलहौजी के इस नये कानून के तहत अब कोई राजा अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए बच्चा गोद नहीं ले सकता था. इस कानून की जद में झांसी भी आया. लाॅर्ड डलहौजी ने लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र दामोदर राव को झांसी का वारिस मानने से इंकार कर दिया और झांसी का विलय अंग्रेजी राज में करने की घोषणा कर दी. जब रानी लक्ष्मीबाई को यह बात बताई गई तो उन्होंने कहा कि मैं मेरी झांसी नहीं दूंगी. अंग्रेजों ने रानी लक्ष्मीबाई को 60 हजार सालाना की पेंशन लेकर झांसी का किला खाली करने का आदेश दिया.

1857 की क्रांति और लक्ष्मीबाई


डलहौजी के इस काले कानून के खिलाफ पूरे भारत के रजवाड़े उठ खड़े हुए. रानी लक्ष्मीबाई ने हल्दी-कुंकुम का लेप लगाया और अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी. झांसी में रहने वाले अंग्रेज एजेन्ट से लड़ाई में एजेन्ट को अपनी जान गंवानी पड़ी. बचे हुए सिपाहियों ने भाग कर अपनी जान बचाई. झांसी आजाद हो चुका था लेकिन अंग्रेजों ने इस बगावत को दबाने के लिए बड़ी फौज झांसी भेजी. रानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों से लड़ने के लिए तोप और हथियार बनवाए. किले की मरम्मत करवाई गई. झांसी अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए तैयार था.

अंग्रेज जब झांसी पहुंचे तो तोप के गोलो की बौछार हो गई. अंग्रेजी फौज इसके लिए तैयार नहीं थी, उन्हें इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी कि झांसी के पास इतनी सारी तोपें होंगी. ह्यूरोज की अगुआई ने रानी लक्ष्मीबाई के पास समर्पण करने का प्रस्ताव भेजा. रानी ने इस प्रस्ताव के जवाब में लिख भेजा-हम आजादी के लिए लड़ेंगे. उन्होंने गीता का संदर्भ देते हुए कहा कि अगर हम जीते तो धरती पर राज्य करेंगे और लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए तो स्वर्ग के भागी बनेंगे.

24 मार्च 1858 से लड़ाई शुरू हो गई. अंग्रेज बहुत कोशिश के बाद भी झांसी को जीतने में असफल रहे. उधर रानी लक्ष्मी बाई की सहायता के लिए तात्या टोपे 20 हजार सिपाहियों के साथ निकले और रास्ते में अंग्रेज सेना से भिड़ गए. उधर झांसी के किले को काफी नुकसान पहुंचा और अंग्रेज सेना किले में प्रवेश कर गई. झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को उनके सेनापति ने बेटे के साथ ग्वालियर के लिए रवाना कर दिया. वहां से निकलकर झांसी की रानी कालपी पहुंची. कालपी में तात्या टोपे उनके साथ हो लिए.

तात्या टोपे और लक्ष्मीबाई की संयुक्त सेना ने इसके बाद ग्वालियर पर हमला किया और किले को जीत लिया. अंग्रेज सेना अब लक्ष्मीबाई से लड़ने के लिए ग्वालियर पहुंची. 18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में लड़ते हुए झांसी की रानी वीरगति को प्राप्त हुई. मणिकर्णिका यानी लक्ष्मीबाई का नाम इतिहास में अमर हो गया.




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