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Osho Speech on Kumbh Mela and Naga Sadhu
Osho Speech on Kumbh Mela and Naga Sadhu

कुम्भ और नागा पर ओशो का प्रवचन


मैं एक ही बार कुंभ गया हूं. सिर्फ देखने गया था कि किस-किस तरह की मूढ़ताएं वहां चलती हैं. उनमें सबसे बड़ी मूढ़ता नागा साधु हैं. और जो मैंने उनके चेहरे पर देखा, उसमें साधुता तो है ही नहीं; साधुता का नाममात्र नहीं है. जो हाव-भाव गुंडों के चेहरों पर होते हैं, वही हाव-भाव इन नागा साधुओं के चेहरों पर होते हैं. जरा भी भेद नहीं है. वही दुष्टता, वही दंभ, वही उपद्रव की वृत्ति.


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हर कुंभ के मेले में जो उपद्रव होते हैं, झगड़े होते हैं, खून-खराबे होते हैं, वे नागा साधुओं की वजह से हो जाते हैं. मगर दमन ऐसी चीज है कि इसके ये परिणाम होने वाले हैं.

*इसलिए कृष्ण वेदांत, तुम कहते हो: "सिंहस्थ मेले में उस स्थान पर काफी भीड़ होती थी."

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होगी ही. भारत है यह. दुनिया में कोई और देश होता, तो इन नागा साधुओं को पकड़ कर पागलखाने में रख दिया जाता. इनका इलाज किया जाता. इनको बिजली के शॉक दिए जाते. ये होश में नहीं हैं. ये क्या कर रहे हैं! ये विक्षिप्त हैं. मगर यहां ये महात्मा हैं! यहां पागल परमहंस समझे जाते हैं! यहां विक्षिप्त मुक्त समझे जाते हैं! और भीड़ तो वहां सबसे ज्यादा होगी, क्योंकि ऐसा मौका क्यों चूकना! नग्न आदमी को देखने की आकांक्षा तो बड़ी प्रबल है.

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और फिर इस तरह के बेहूदे प्रदर्शन... 

तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि इस तरह के बेहूदे प्रदर्शनों को देखने लिए भीड़ इकट्ठी होती है और इसका कोई विरोध नहीं है. विरोध क्यों होगा? यह सदियों पुरानी परंपरा है. यह परंपरावादी देश है. यह रूढ़िवादी देश है. यहां कोई भी मूर्खता पुरानी होनी चाहिए, बस फिर ठीक है. जितनी पुरानी हो उतनी ज्यादा ठीक है.

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तुम पूछ रहे हो कि आपके आश्रम में ऐसा कोई कृत्य नहीं होता, फिर भी लोग आप पर और आपके आश्रम पर नाराज हैं.

उनके नाराज होने का कारण ही यही है कि मैं रूढ़िवादी नहीं हूं, परंपरावादी नहीं हूं. मैं रूढ़ि-विरोधी हूं, परंपरा-विरोधी हूं. मैं अतीत-विरोधी हूं. मैं राष्ट्र-विरोधी हूं, जाति-विरोधी हूं, वर्ण-विरोधी हूं. मैं चाहता हूं कि तुम्हें सारी सीमाओं से मुक्त कर दूं, तुम पर कोई सीमा न रह जाए. तुम सिर्फ चैतन्य हो, इसका बोध पर्याप्त है. तुम साक्षी मात्र हो.

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तुम देह भी नहीं हो तो भारतीय कैसे हो सकते हो? हिंदू कैसे हो सकते हो? मुसलमान कैसे हो सकते हो? ये सब तो मन के खेल हैं, मन के जाल हैं. तो मुझसे तो हिंदू भी नाराज होगा, मुसलमान भी नाराज होगा, ईसाई भी नाराज होगा. 

क्योंकि वे सभी परंपराओं में जी रहे हैं. उन सबका जीवन अतीत में है. और मैं चाहता हूं कि तुम अतीत से बिलकुल मुक्त हो जाओ, तो ही तुम्हारे जीवन में वर्तमान से संस्पर्श होगा. और वर्तमान ही परमात्मा है. और वर्तमान से जुड़ जाओ, तो परमात्मा का तुम्हें स्वाद मिले.

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मैं साधु नहीं हूं. मैं किसी परंपरा का न ऋषि हूं, न मुनि हूं, न महात्मा हूं. मैं बगावती हूं. मेरा कौन साथ दे? मेरा विरोध बिलकुल स्वाभाविक है. मैं उसे अंगीकार करता हूं. मैं स्वागत भी करता हूं. चलो कुछ चहल-पहल तो है. चलो कुछ आंधी तो उठी. चलो सदियों से जड़ बुद्धि में कुछ हलचल तो मची, कुछ तरंगें तो उठीं, कुछ जीवन का तो बोध हुआ.

*वेदांत तुम पूछते हो कि लोग आप पर और आपके आश्रम पर नाराज क्यों हैं?

इसलिए नाराज हैं. धर्म का मैं इन सारी बातों से कोई संबंध नहीं देखता. धर्म का संबंध तो सिर्फ एक चीज से है--वह ध्यान है. और धर्म की एक ही खोज है, एक ही अन्वेषण है--वह समाधि है.

ध्यान समाधि तक कैसे पहुंचे, इसका विज्ञान धर्म है. शेष सब बकवास है. शेष सबसे छुटकारा हो जाना चाहिए.

मगर उस शेष सबके जंगल में ही असली चीज खो गई है. मैं तो उतने भर को बचा लेना चाहता हूं, जितना मूल्यवान है--वस्तुतः मूल्यवान है, और बाकी कूड़ा-करकट को बिलकुल आग लगा देना चाहता हूं. इसलिए लोग मुझसे नाराज हैं. उनका नाराज होना स्वाभाविक है.

इसलिए कृष्ण वेदांत, लोग मेरा विरोध करेंगे, मुझ पर नाराज होंगे. उनका कोई कसूर भी नहीं है. जब सदियों पुरानी धारणाओं पर चोट की जाती है, तो बेचैनी होती है, तिलमिलाहट होती है. यह स्वाभाविक है. मगर यह करना ही होगा, अन्यथा मनुष्य के लिए फिर कोई आशा नहीं है. तथाकथित धर्मों ने मनुष्य को मार डाला है.

मैं दमन-विरोधी हूं, रूपांतरण का पक्षपाती हूं. तुम जिसको दबाओगे, उसे दबाते ही रहना पड़ेगा बार-बार. और कितना ही दबाओ, वह उभर-उभर कर वापस आएगा. जो भी तुम्हें दिया है जीवन ने, उसमें कुछ भी पाप नहीं है और कुछ भी गलत नहीं है. जो भी तुम्हें दिया है जीवन ने, वह परम धन है--लेकिन ऐसा है जैसे अनगढ़ हीरे. उन पर चमक रखनी होगी, उनको पहलू देना होगा, उनको साफ करना होगा, तब वे कोहिनूर बनेंगे.

यह तो तुम्हें पता होगा कि कोहिनूर जब मिला, जिस व्यक्ति को मिला, उसके बच्चे उससे खेलते रहे तीन साल तक, यही समझ कर कि कोई चमकदार पत्थर है. वह तो संयोग की बात थी कि एक संन्यासी मेहमान हुआ, जो कि संन्यास लेने के पहले जौहरी रह चुका था. उसने बच्चों को उस पत्थर से खेलते देखा. उसने बच्चों के पिता को कहा कि तुम पागल तो नहीं हो! मैं जौहरी हूं--था, इससे बड़ा हीरा मैंने अपने जीवन में न देखा, न सुना. यह क्या कर रहे हो?

उन्होंने कहा, यह तो तीन साल से हमारे घर में है. मैं खेत पर था, वहां मुझे मिला. मेरे खेत में से एक छोटा सा झरना निकलता है, उसकी रेत में मुझे पड़ा मिल गया, मैंने सोचा बच्चे खेलेंगे. तो यह तो पड़ा रहता है यहीं आंगन में, बच्चे खेलते रहते हैं. कोई उठा भी ले जाता तीन साल में, मुझे क्या पता कि हीरा है. तब उसे जौहरी के पास ले जाया गया.

आज कोहिनूर दुनिया का सबसे बड़ा हीरा है. करोड़ों उसकी कीमत है. उससे बड़ा कीमती कोई हीरा नहीं है. इंग्लैंड की महारानी के मुकुट में वह जड़ा है. जब मिला था तो उसका तीन गुना वजन था, अब सिर्फ एक तिहाई वजन है, लेकिन कीमत उसकी करोड़ों गुना ज्यादा है. क्या हुआ? दो तिहाई वजन कहां गया? दो तिहाई वजन छांटना पड़ा, काटना पड़ा. वह कट गया तो यह सौंदर्य प्रकट हुआ. वह छंट गया तो यह सौंदर्य प्रकट हुआ.

तुम्हारे भीतर जो भी है, अनगढ़ पत्थर है अभी. बहुत कुछ छांटना होगा, बहुत कुछ काटना होगा, धार रखनी होगी, चमकाना होगा. लेकिन हीरे हैं. सब हीरे हैं.

कामवासना ही तुम्हारे भीतर ब्रह्मचर्य बनती है. कामवासना ऐसा समझो कि जैसे सिर के बल खड़ा हुआ आदमी, और ब्रह्मचर्य ऐसा समझो कि पैर के बल खड़ा आदमी. बस इससे ज्यादा फर्क नहीं है. तुम्हारे भीतर जो क्रोध है, यही करुणा बनती है. जिसके भीतर क्रोध नहीं है, उसके भीतर करुणा पैदा नहीं हो सकती. और तुम्हारे भीतर जो आसक्ति है, वही प्रेम में रूपांतरित होती है.

मैं रूपांतरण का पक्षपाती हूं. मैं रूपांतरण की कीमिया को ही धर्म कहता हूं. और तुम्हें सिखाया गया है दमन. और दमन से कभी रूपांतरण नहीं होता.

इसलिए सिंहस्थ मेले में नागा साधुओं को देखने के लिए भीड़ होगी. हर मेले में, हर कुंभ में नागा साधुओं को देखने के लिए जो भीड़ होती है, वह और कहीं नहीं होती. स्त्रियां, पुरुष, बच्चे, सब इकट्ठे होते हैं. क्योंकि यह मौका कौन चूके! धर्म के नाम पर यह अवसर चूकने जैसा नहीं है. और उन नागा साधुओं के चेहरे तुम देखो, तुम चकित हो जाओगे--साधुता जैसी कोई चीज दिखाई नहीं पड़ेगी.

मैं दमन-विरोधी हूं. मैं पाखंड-विरोधी हूं. और तुमने पाखंड की इतनी पूजा की है. इसलिए यह स्वाभाविक है कि मुझे गालियां पड़ेंगी, लोग मुझ पर नाराज होंगे.

मुझसे तो केवल वे ही लोग राजी हो सकते हैं, जिनके पास थोड़ी प्रतिभा है, जिनके पास थोड़ी बौद्धिक क्षमता है, जिनके पास थोड़ा आत्मबल है, थोड़ा आत्मगौरव है, जो थोड़े आत्मवान हैं; जिनमें इतना साहस है कि छोड़ दें सारे अतीत को और चल पड़ें मेरे साथ अज्ञात की यात्रा पर--उनके अतिरिक्त, मेरे साथ भीड़ नहीं चल सकती है.


ओशो - अष्टावक्र: महागीता


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