वट सावित्री व्रत कथा- सावित्री सत्यवान की कहानी
वट सावित्री व्रत कथा ज्येष्ठ माह की अमावस्या को मनाई जाती है. इसे बड़ अमावस भी कहा जाता है. महिलाएं अपने अखण्ड सौभाग्य एवं कल्याण की कामना से यह व्रत करती हैं. वट सावित्री प्राचीन भारतीय संस्कृति का वाहक है.
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एक समय की बात है कि भद्रदेश में अश्वपति नामक महान प्रतापी और ज्ञानी राजा राज्य करता था. उसके कोई संतान नहीं थी. राजा ने पंडितों से पुत्र योग के बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा 'हे राजन आपके पुत्र योग तो नहीं है, परन्तु एक कन्या होगी और वह भी बारह वर्ष की आयु में विधवा हो जाएगी.
राजा ने कहा- ‘चाहे कन्या ही हो, लेकिन मुझे कोई निःसंतान तो नहीं कहेगा.
पंडितों के कहे अनुसार राजा ने यज्ञ करवाया, वट सावित्री का व्रत रखा. उसी के प्रताप से कुछ समय पश्चात् उन्हें कन्या रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा. समय बीतता गया. कन्या बड़ी होने लगी. जब सावित्री को वर खोजने के लिए कहा गया, तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पति रूप में वरण कर लिया.
इधर यह बात जब ऋषि नारद को ज्ञात हुई, तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले- आपकी कन्या ने वर खोजने में निःसन्देह भारी भूल की है. प्रत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा है लेकिन वट अल्प आय है. एक वर्ष पश्चात उसकी मृत्यु हो जाएगी.
बड़ अमावस की पूजा विधि
नारद जी की बात सुनकर राजा अश्वपति उदास हो गए. उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया कि- 'ऐसे अल्प आयु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिए तुम कोई और वर चुन लो. इस पर सावित्री बोली- ‘आर्य, कन्याएं अपने पति का वरण एक बार ही करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करूंगी.'सावित्री के निश्चय को सुनकर नारदजी ने अश्वपति को समझाया कि ‘तुमको सावित्री का विवाह सत्यवान से ही कर देना चाहिए, इतना कहकर नारद जी अपने स्थान को चले गए.
राजा अश्वपति विवाह का समस्त सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उसी वन में गए, जहां राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे घुमत्सेन रहते थे. अन्ततोगत्वा विधि-विधान पूर्वक सावित्री और सत्यवान का विवाह सम्पन्न हो गया.
वन में रहते हुए सावित्री अपने सास-ससुर की खूब सेवा करने लगी. समय व्यतीत होता गया, लेकिन सावित्री नारदजी की भविष्यवाणी को ध्यान में रखते हुए एक-एक दिन गिनती जा रही थी. उसने जब पति का मरणकाल समीप आते देखा, तब तीन दिन पहले ही से वह उपवास करने लगी. तीसरे दिन उसने पितृदेवों की पूजा की.
वही दिन नारदजी का बतलाया हुआ था. उस दिन जब सत्यवान कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिए वन जाने को तैयार हुआ, तब सावित्री भी अपने सास-ससुर की आज्ञा लेकर उसके साथ वन को चली गई.
वन में पहुंचकर सत्यवान लकड़ी काटने के लिए जैसे ही वृक्ष पर चढ़ा, तो उसके मस्तिष्क में असहनीय पीड़ा होने लगी. वह वृक्ष से नीचे उतरकर सावित्री की गोद में लेट गया. थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिए यमराज खड़े हैं. प्रथम तो यमराज ने सावित्री को ईश्वरीय नियम सुनाया और उसके बाद सत्यवान के अंगुष्ठप्रमाण जीवन को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिए. सावित्री भी यमराज के पीछे चली.
जब बहुत दूर तक सावित्री यमराज के पीछे चलती रही, तब यमराज ने कहा- 'हे पतिपरायणे. जहां तक मनुष्य मनुष्य का साथ दे सकता है, वहां तक तुमने अपने पति का साभ दिया. उम चामर घर को लौट जाओ.
यह सुनकर सावित्री बोली- यमराज . जहां तक मेरे पति जाएंगे, वहीं मुझे जाना चाहिए. यही सनातन सत्य है.
यमराज ने सावित्री की धर्मपरायण वाणी सुनकर वर मांगने को कहा. यमराज की बात सुनकर सावित्री ने वर मांगा- ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं, उन्हें दिव्य ज्योति दें. यमराज ने 'तथास्तु' कहकर उसे लौट जाने को कहा, लेकिन सावित्री उनके पीछे चलते हुए बोली ‘भगवान! जहां मेरे पति देव जाते हों, वहां उनके पीछे चलने में मुझे कोई श्रम या कष्ट नहीं हो सकता.
एक पति-परायण होना मेरा कर्तव्य है, दूसरे आप धर्मराज हैं. अतः सत्यपुरुषों का समागम भी थोड़े पुण्य का फल नहीं है. सावित्री के ऐसे धर्म एवं श्रद्धायुक्त वचन सुनकर यमराज ने पुनः वर मांगने को कहा.सावित्री ने वर मांगा कि 'मेरे ससुर घुमत्सेन का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाए. यमराज ने 'तथास्तु' कहकर उसे लौट जाने को कहा, परन्तु सावित्री. अडिग रही.
सावित्री की पति-भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज द्रवीभूत हो गए. उन्होंने सावित्री से एक और वर मांगने के लिए कहा. तब सावित्री ने वर मांगते हुए कहा- 'मैं सत्यवान के सौ पुत्रों की मां बनना चाहती हूं. कृपा कर आप मुझे यह वरदान दें. इस अन्तिम वरदान को देते हुए यमराज ने सत्यवान को अपने पाश से मुक्त कर दिया और वह अदृश्य हो गए. सावित्री वट वृक्ष के पास आई. वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गए.
सत्यवान के माता-पिता की आंखे ठीक हो गई और उनका खोया हुआ राज्य भी उन्हें वापस मिल गया. इस सबसे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति-समस्त देश में फैल गई.
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