hindi ki kahani, kahani in hindi, kahani hindi me, hindi story, hindi song, hindi kahani download, kahani hindi mai, hindi prem kahani, story in hindi, kahaniya hindi, hindi khani, kahani for child in hindi, kahani hindi mai, hindi kahani cartoon, bolti kahani

Full width home advertisement


Premchand Stories

Love Stories

Post Page Advertisement [Top]


hindi kahani download, munshi premchand, munshi premchand hindi, munshi premchand in hindi, premchand in hindi, premchand kahani, premchand stories, premchand stories hindi, premchand story,
Premchand

अमृत

- प्रेमचंद

premchand ki kahani, premchand stories in hindi, premchand hindi story, munshi premchand stories, premchand story in hindi

मेरी उठती जवानी थी जब मेरा दिल दर्द के मजे से परिचित हुआ. कुछ दिनों तक शायरी का अभ्यास करता रहा और धीर-धीरे इस शौक ने तल्लीनता का रुप ले लिया. सांसारिक संबंधो से मुंह मोड़कर अपनी शायरी की दुनिया में आ बैठा और तीन ही साल की मश्क़ ने मेरी कल्पना के जौहर खोल दिये. 

कभी-कभी मेरी शायरी उस्तादों के मशहूर कलाम से टक्कर खा जाती थी. मेरे क़लम ने किसी उस्ताद के सामने सर नहीं झुकाया. मेरी कल्पना एक अपने-आप बढ़ने वाले पौधे की तरह छंद और पिंगल की क़ैदो से आजाद बढ़ती रही और ऐसे कलाम का ढंग निराला था. 

मैंने अपनी शायरी को फारस से बाहर निकाल कर योरोप तक पहुँचा दिया. यह मेरा अपना रंग था. इस मैदान में न मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी था, न बराबरी करने वाला बावजूद इस शायरों जैसी तल्लीनता के मुझे मुशायरों की वाह-वाह और सुभानअल्लाह से नफ़रत थी. 

story of premchand, premchand short stories, munsi premchand, munshi premchand story, godan premchand, premchand books, premchand ki kahaniya, about premchand, munshi premchand stories in hindi, stories of premchand

हां, काव्य-रसिकों से बिना अपना नाम बताये हुए अक्सर अपनी शायरी की अच्छाइयों और बुराइयों पर बहस किया करता. तो मुझे शायरी का दावा न था मगर धीरे-धीरे मेरी शोहरत होने लगी और जब मेरी मसनवी ‘दुनियाए हुस्न’ प्रकाशित हुई तो साहित्य की दुनिया में हल-चल-सी मच गयी. 

पुराने शायरों ने काव्य-मर्मज्ञों की प्रशंसा-कृपणता में पोथे के पोथे रंग दिये हैं मगर मेरा अनुभव इसके बिलकुल विपरीत था . मुझे कभी-कभी यह ख़याल सताया करता कि मेरे कद्रदानों की यह उदारता दूसरे कवियों की लेखनी की दरिद्रता का प्रमाण है. यह ख़याल हौसला तोउ़ने वाला था. बहरहाल, जो कुछ हुआ, ‘दुनियाए हुस्न’ ने मुझे शायरी का बादशाह बना दिया. मेरा नाम हरेक ज़बान पर था. मेरी चर्चा हर एक अखबार में थी. शोहरत अपने साथ दौलत भी लायी. मुझे दिन-रात शेरो-शायरी के अलावा और कोई काम न था. 

अक्सर बैठे-बैठे रातें गुज़र जातीं और जब कोई चुभता हुआ शेर कलम से निकल जाता तो मैं खुशी के मारे उछल पड़ता. मैं अब तक शादी-ब्याह की कैंदों से आजाद़ था या यों कहिए कि मैं उसके उन मजों से अपरिचित था जिनमें रंज की तल्खी भी है और खुशी की नमकीनी भी. अक्सर पश्चिमी साहित्यकारों की तरह मेरा भी ख्याल था कि साहित्य के उन्माद और सौन्दर्य के उन्माद में पुराना बैर है. मुझे अपनी जबान से कहते हुए शर्मिन्दा होना पड़ता है कि मुझे अपनी तबियत पर भरोसा न था. 

premchand biography in hindi, premchand wikipedia premchand ke fate jute, munshi premchand ka jeevan parichay

जब कभी मेरी आँखों में कोई मोहिनी सूरत घूम जाती तो मेरे दिल-दिमाग पर एक पागलपन-सा छा जाता. हफ्तों तक अपने को भूला हुआ-सा रहता. लिखने की तरफ तबियत किसी तरह न झुकती. ऐसे कमजोर दिल में सिर्फ एक इश्क की जगह थी. इसी डर से मैं अपनी रंगीन ततिबयत के खिलाफ आचरण शुद्ध रखने पर मजबूर था. 

कमल की एक पंखुड़ी, श्यामा के एक गीत, लहलहाते हुए एक मैदान में मेरे लिए जादू का-सा आकर्षण था मगर किसी औरत के दिलफ़रेब हुस्न को मैं चित्रकार या मूर्तिकार की बैलौस ऑंखों से नहीं देख सकता था. सुंदर स्त्री मेरे लिए एक रंगीन, क़ातिल नागिन थी जिसे देखकर ऑंखें खुश होती हैं मगर दिल डर से सिमट जाता है.

खैर, ‘दुनियाए हुस्न’ को प्रकाशित हुए दो साल गुजर चुके थे. मेरी ख्याति बरसात की उमड़ी हुई नदी की तरह बढ़ती चली जाती थी. ऐसा मालूम होता था जैसे मैंने साहित्य की दुनिया पर कोई वशीकरण कर दिया है. 

biography of munshi premchand, munshi premchand college siliguri, premchand ki jivani

इसी दौरान मैंने फुटकर शेर तो बहुत कहे मगर दावतों और अभिनंदनपत्रों की भीड़ ने मार्मिक भावों को उभरने न दिया. प्रदर्शन और ख्याति एक राजनीतिज्ञ के लिए कोड़े का काम दे सकते हैं, मगर शायर की तबियत अकेले शांति से एक कोने के बैठकर ही अपना जौहर दिखालाती है. चुनांचे मैं इन रोज-ब-रोज बढ़ती हुई बेहूदा बातों से गला छुड़ा कर भागा और पहाड़ के एक कोने में जा छिपा. ‘नैरंग’ ने वहीं जन्म लिया.

नैरंग’ के शुरु करते हुए ही मुझे एक आश्चर्यजनक और दिल तोड़ने वाला अनुभव हुआ. ईश्वर जाने क्यों मेरी अक्ल और मेरे चिंतन पर पर्दा पड़ गया. घंटों तबियत पर जोर डालता मगर एक शेर भी ऐसा न निकलता कि दिल फड़के उठे. सूझते भी तो दरिद्र, पिटे हुए विषय, जिनसे मेरी आत्मा भागती थी. 

मैं अक्सर झुझलाकर उठ बैठता, कागज फाड़ डालता और बड़ी बेदिली की हालत में सोचने लगता कि क्या मेरी काव्यशक्ति का अंत हो गया, क्या मैंने वह खजाना जो प्रकृति ने मुझे सारी उम्र के लिए दिया था, इतनी जल्दी मिटा दिया. कहां वह हालत थी कि विषयों की बहुतायत और नाजुक खयालों की रवानी क़लम को दम नहीं लेने देती थी. कल्पना का पंछी उड़ता तो आसमान का तारा बन जाता था और कहां अब यह पस्ती! यह करुण दरिद्रता! मगर इसका कारण क्या है? यह किस क़सूर की सज़ा है. 

कारण और कार्य का दूसरा नाम दुनिया है. जब तक हमको क्यों का जवाब न मिले, दिल को किसी तरह सब्र नहीं होता, यहां तक कि मौत को भी इस क्यों का जवाब देना पड़ता है. आखिर मैंने एक डाक्टर से सलाह ली. उसने आम डाक्टरों की तरह आब-हवा बदलने की सलाह दी. मेरी अक्ल में भी यह बात आयी कि मुमकिन है नैनीताल की ठंडी आब-हवा से शायरी की आग ठंडी पड़ गई हो. छ: महीने तक लगातार घूमता-फिरता रहा. 

अनेक आकर्षक दृश्य देखे, मगर उनसे आत्मा पर वह शायराना कैफियत न छाती थी कि प्याला छलक पड़े और खामोश कल्पना खुद ब खुद चहकने लगे. मुझे अपना खोया हुआ लाल न मिला. अब मैं जिंदगी से तंग था. जिंदगी अब मुझे सूखे रेगिस्तान जैसी मालूम होती जहां कोई जान नहीं, ताज़गी नहीं, दिलचस्पी नहीं. 

हरदम दिल पर एक मायूसी-सी छायी रहती और दिल खोया-खोया रहता. दिल में यह सवाल पैदा होता कि क्या वह चार दिन की चांदनी खत्म हो गयी और अंधेरा पाख आ गया? आदमी की संगत से बेजार, हमजिंस की सूरत से नफरत, मैं एक गुमनाम कोने में पड़ा हुआ जिंदगी के दिन पूरे कर रहा था. पेड़ों की चोटियों पर बैठने वाली, मीठे राग गाने वाली चिड़िया क्या पिंजरे में ज़िंदा रह सकती हैं? मुमकिन है कि वह दाना खाये, पानी पिये मगर उसकी इस जिंदगी और मौत में कोई फर्क नहीं है.

आखिर जब मुझे अपनी शायरी के लौटने की कोई उम्मीद नहीं रही, तो मेरे दिल में यह इरादा पक्का हो गया कि अब मेरे लिए शायरी की दुनिया से मर जाना ही बेहतर होगा. मुर्दा तो हूँ ही, इस हालत में अपने को जिंदा समझना बेवकूफी है. आखिर मैने एक रोज कुछ दैनिक पत्रों का अपने मरने की खबर दे दी. 

उसके छपते ही मुल्क में कोहराम मच गया, एक तहलका पड़ गया. उस वक्त मुझे अपनी लोकप्रियता का कुछ अंदाजा हुआ. यह आम पुकार थी, कि शायरी की दुनिया की किस्ती मंझधार में डूब गयी. शायरी की महफिल उखड़ गयी. पत्र-पत्रिकाओं में मेरे जीवन-चरित्र प्रकाशित हुए जिनको पढ़ कर मुझे उनके एडीटरों की आविष्कार-बुद्धि का क़ायल होना पड़ा. न तो मैं किसी रईस का बेटा था और न मैंने रईसी की मसनद छोड़कर फकीरी अख्तियार की थी. 

उनकी कल्पना वास्तविकता पर छा गयी थी. मेरे मित्रों में एक साहब ने, जिन्हे मुझसे आत्मीयता का दावा था, मुझे पीने-पिलाने का प्रेमी बना दिया था. वह जब कभी मुझसे मिलते, उन्हें मेरी आखें नशे से लाल नजर आतीं. अगरचे इसी लेख में आगे चलकर उन्होनें मेरी इस बुरी आदत की बहुत हृदयता से सफाई दी थी क्योंकि रुखा-सूखा आदमी ऐसी मस्ती के शेर नहीं कह सकता था. ताहम हैरत है कि उन्हें यह सरीहन गलत बात कहने की हिम्मत कैसे हुई.

खैर, इन गलत-बयानियों की तो मुझे परवाह न थी. अलबत्ता यह बड़ी फिक्र थी, फिक्र नहीं एक प्रबल जिज्ञासा थी, कि मेरी शायरी पर लोगों की जबान से क्या फतवा निकलता है. हमारी जिंदगी के कारनामे की सच्ची दाद मरने के बाद ही मिलती है क्योंकि उस वक्त वह खुशामद और बुराइयों से पाक-साफ होती हैं. 

मरने वाले की खुशी या रंज की कौन परवाह करता है. इसीलिए मेरी कविता पर जितनी आलोचनाऍं निकली हैं उसको मैंने बहुत ही ठंडे दिल से पढ़ना शुरु किया. मगर कविता को समझने वाली दृष्टि की व्यापकता और उसके मर्म को समझने वाली रुचि का चारों तरफ अकाल-सा मालूम होता था. 

अधिकांश जौहरियों ने एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस की थी, और इसमें शक नहीं कि वे पाठक की हैसियत से उस शेर के पहलुओं को खूब समझते थे. मगर आलोचक का कहीं पता न था. नजर की गहराई गायब थी. समग्र कविता पर निगाह डालने वाला कवि, गहरे भावों तक पहुँचने वाला कोई आलोचक दिखाई न दिया.

एक रोज़ मैं प्रेतों की दुनिया से निकलकर घूमता हुआ अजमेर की पब्लिक लाइब्रेरी में जा पहुँचा. दोपहर का वक्त था. मैंने मेज पर झुककर देखा कि कोई नयी रचना हाथ आ जाये तो दिल बहलाऊँ. यकायक मेरी निगाह एक सुंदर पत्र की तरफ गयी जिसका नाम था ‘कलामें अख्तर’. जैसे भोला बच्चा खिलौने कि तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मैंने उस किताब को उठा लिया. 

उसकी लेखिका मिस आयशा आरिफ़ थीं. दिलचस्पी और भी ज्यादा हुई. मैं इत्मीनान से बैठकर उस किताब को पढ़ने लगा. एक ही पन्ना पढ़ने के बाद दिलचस्पी ने बेताबी की सूरत अख्तियार की. फिर तो मैं बेसुधी की दुनिया में पहुँच गया. मेरे सामने गोया सूक्ष्म अर्थो की एक नदी लहरें मार रही थी. कल्पना की उठान, रुचि की स्वच्छता, भाषा की नर्मी. काव्य-दृष्टि ऐसी थी कि हृदय धन्य-धन्य हो उठता था. 

मैं एक पैराग्राफ पढ़ता, फिर विचार की ताज़गी से प्रभावित होकर एक लंबी सॉँस लेता और तब सोचने लगता, इस किताब को सरसरी तौर पर पढ़ना असम्भव था. यह औरत थी या सुरुचि की देवी. उसके इशारों से मेरा कलाम बहुत कम बचा था मगर जहां उसने मुझे दाद दी थी वहां सच्चाई के मोती बरसा दिये थे. 

उसके एतराजों में हमदर्दी और प्रशंसा में भक्ति था. शायर के कलाम को दोषों की दृष्टियों से नहीं देखना चाहिये. उसने क्या नहीं किया, यह ठीक कसौटी नहीं. बस यही जी चाहता था कि लेखिका के हाथ और कलम चूम लूँ. ‘सफ़ीर’ भोपाल के दफ्तर से एक पत्रिका प्रकाशित हुई थी. मेरा पक्का इरादा हो गया, तीसरे दिन शाम के वक्त मैं मिस आयशा के खूबसूरत बंगले के सामने हरी-हरी घास पर टहल रहा था. 

मैं नौकरानी के साथ एक कमरे में दाखिल हुआ. उसकी सजावट बहुत सादी थी. पहली चीज़ पर निगाहें पड़ीं वह मेरी तस्वीर थी जो दीवार पर लटक रही थी. सामने एक आइना रखा हुआ था. मैंने खुदा जाने क्यों उसमें अपनी सूरत देखी. मेरा चेहरा पीला और कुम्हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ों पर गर्द की एक मोटी तह जमी हुई, परेशानी की जिंदा तस्वीर थी.

उस वक्त मुझे अपनी बुरी शक्ल पर सख्त शर्मिंदगी हुई. मैं सुंदर न सही मगर इस वक्त तो सचमुच चेहरे पर फटकार बरस रही थी. अपने लिबास के ठीक होने का यकीन हमें खुशी देता है. अपने फुहड़पन का जिस्म पर इतना असर नहीं होता जितना दिल पर. हम बुजदिल और बेहौसला हो जाते हैं.

मुझे मुश्किल से पांच मिनट गुजरे होंगे कि मिस आयशा तशरीफ़ लायीं. सांवला रंग था, चेहरा एक गंभीर घुलावट से चमक रहा था. बड़ी-बड़ी नरगिसी आंखों से सदाचार की, संस्कृति की रोशनी झलकती थी. क़द मझोले से कुछ कम. अंग-प्रत्यंग छरहरे, सुथरे, ऐसे हल्की-फुल्की कि जैसे प्रकृति ने उसे इस भौतिक संसार के लिए नहीं, किसी काल्पनिक संसार के लिए सिरजा है. कोई चित्रकार कला की उससे अच्छी तस्वीर नही खींच सकता था.

मिस आयशा ने मेरी तरफ दबी निगाहों से देखा मगर देखते-देखते उसकी गर्दन झुक गयी और उसके गालों पर लाज की एक हल्की-परछाईं नाचती हुई मालूम हुई. जमीन से उठकर उसकी ऑंखें मेरी तस्वीर की तरफ गयीं और फिर सामने पर्दे की तरफ जा पहुँचीं. शायद उसकी आड़ में छिपना चाहती थीं.

मिस आयशा ने मेरी तरफ दबी निगाहों से देखकर पूछा—आप स्वर्गीय अख्तर के दोस्तों में से हैं?

मैंने सिर नीचा किये हुए जवाब दिया--मैं ही बदनसीब अख्तर हूँ.

आयशा एक बेखुदी के आलम में कुर्सी पर से खड़ी हुई और मेरी तरफ हैरत से देखकर बोलीं—‘दुनियाए हुस्न’ के लिखने वाले?

अंधविश्वास के सिवा और किसने इस दुनिया से चले जानेवाले को देखा है? आयशा ने मेरी तरफ कई बार शक से भरी निगाहों से देखा. उनमें अब शर्म और हया की जगह के बजाय हैरत समायी हुई थी. मेरे कब्र से निकलकर भागने का तो उसे यकीन आ ही नहीं सकता था, शायद वह मुझे दीवाना समझ रही थी. 

उसने दिल में फैसला किया कि इस आदमी मरहूम शायर का कोई क़रीबी अजीज है. शकल जिस तरह मिल रही थी वह दोनों के एक खानदान के होने का सबूत थी. मुमकिन है कि भाई हो. वह अचानक सदमे से पागल हो गया है. शायद उसने मेरी किताब देखी होगी ओर हाल पूछने के लिए चला आया. 

अचानक उसे ख़याल गुजरा कि किसी ने अखबारों को मेरे मरने की झूठी खबर दे दी हो और मुझे उस खबर को काटने का मौका न मिला हो. इस ख़याल से उसकी उलझन दूर हुई, बोली—अखबारों में आपके बारे में एक निहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मैंने जवाब दिया—वह खबर सही थी.

अगर पहले आयशा को मेरे दिवानेपन में कुछ था तो वह दूर हो गया. आखिर मैने थोड़े लफ़्जो में अपनी दास्तान सुनायी और जब उसको यकीन हो गया कि ‘दुनियाए हुस्न’ का लिखनेवाला अख्तर अपने इन्सानी चोले में है तो उसके चेहरे पर खुशी की एक हल्की सुर्खी दिखायी दी और यह हल्का रंग बहुत जल्द खुददारी और रुप-गर्व के शोख रंग से मिलकर कुछ का कुछ हो गया. 

ग़ालिबन वह शर्मिंदा थी कि क्यों उसने अपनी क़द्रदानी को हद से बाहर जाने दिया. कुछ देर की शर्मीली खामोशी के बाद उसने कहा—मुझे अफसोस है कि आपको ऐसी मनहूस खबर निकालने की जरुरत हुई.

मैंने जोश में भरकर जवाब दिया—आपके क़लम की जबान से दाद पाने की कोई सूरत न थी. इस तनक़ीद के लिए मैं ऐसी-ऐसी कई मौते मर सकता था.

मेरे इस बेधड़क अंदाज ने आयशा की जबान को भी शिष्टाचार और संकोच की क़ैद से आज़ाद किया, मुस्कराकर बोली—मुझे बनावट पसंद नहीं है. डाक्टरों ने कुछ बतलाया नहीं? उसकी इस मुस्कराहट ने मुझे दिल्लगी करने पर आमादा किया, बोला—अब मसीहा के सिवा इस मर्ज का इलाज और किसी के हाथ नहीं हो सकता.

आयशा इशारा समझ गई, हँसकर बोली—मसीहा चौथे आसमान पर रहते हैं.

मेरी हिम्मत ने अब और कदम बढ़ाये---रुहों की दुनिया से चौथा आसमान बहुत दूर नहीं है.

आयशा के खिले हुए चेहरे से संजीदगी और अजनबियत का हल्का रंग उड़ गया. ताहम, मेरे इन बेधड़क इशारों को हद से बढ़ते देखकर उसे मेरी जबान पर रोक लगाने के लिए किसी क़दर खुददारी बरतनी पड़ी. जब मैं कोई घंटे-भर के बाद उस कमरे से निकला तो बजाय इसके कि वह मेरी तरफ अपनी अंग्रेजी तहज़ीब के मुताबिक हाथ बढ़ाये उसने चोरी-चोरी मेरी तरफ देखा. 

फैला हुआ पानी जब सिमटकर किसी जगह से निकलता है तो उसका बहाव तेज़ और ताक़त कई गुना ज्यादा हो जाती है आयशा की उन निगाहों में अस्मत की तासीर थी. उनमें दिल मुस्कराता था और जज्बा नाजता था. आह, उनमें मेरे लिए दावत का एक पुरजोर पैग़ाम भरा हुआ था. जब मैं मुस्लिम होटल में पहुँचकर इन वाक़यात पर गौर करने लगा तो मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि गो मैं ऊपर से देखने पर यहां अब तक अपरिचित था लेकिन भीतरी तौर पर शायद मैं उसके दिल के कोने तक पहुँच चुका था.

जब मैं खाना खाकर पलंग पर लेटा तो बावजूद दो दिन रात-रात-भर जागने के नींद आंखों से कोसों दूर थी. जज्बात की कशमकश में नींद कहॉँ. आयशा की सूरत, उसकी खातिरदारियॉँ और उसकी वह छिपी-छिपी निगाह दिल में एकसासों का तूफान-सा बरपा रही थी उस आखिरी निगाह ने दिल में तमन्नाओं की रुम-धूम मचा दी. 

वह आरजुएं जो, बहुत अरसा हुआ, मर मिटी थीं फिर जाग उठीं और आरजुओं के साथ कल्पना ने भी मुंदी हुई आंखे खोल दीं. दिल में जज्ब़ात और कैफ़ियात का एक बेचैन करनेवाला जोश महसूस हुआ. यही आरजुएं, यही बेचैनिया और यही कोशिशें कल्पना के दीपक के लिए तेल हैं. जज्बात की हरारत ने कल्पना को गरमाया. मैं क़लम लेकर बैठ गया और एक ऐसी नज़म लिखी जिसे मैं अपनी सबसे शानदार दौलत समझता हूँ.

मैं एक होटल मे रह रहा था, मगर किसी-न-किसी हीले से दिन में कम-से-कम एक बार जरुर उसके दर्शन का आनंद उठाता. गो आयशा ने कभी मेरे यहॉँ तक आने की तकलीफ नहीं की तो भी मुझे यह यकीन करने के लिए शहादतों की जरुरत न थीकि वहॉँ किस क़दर सरगर्मी से मेरा इंतजार किया जाता था, मेरे क़दमो की पहचानी हुई आहटे पाते ही उसका चेहरा कैसे कमल की तरह खिल जाता था और आंखों से कामना की किरणें निकलने लगती थीं. 

यहां छ: महीने गुजर गये. इस जमाने को मेरी जिंदगी की बहार समझना चाहिये. मुझे वह दिन भी याद है जब मैं आरजुओं और हसरतों के ग़म से आजाद था. मगर दरिया की शांतिपूर्ण रवानी में थिरकती हुई लहरों की बहार कहां, अब अगर मुहब्बत का दर्द था तो उसका प्राणदायी मज़ा भी था. अगर आरजुओं की घुलावट थी तो उनकी उमंग भी थी. 

आह, मेरी यह प्यासी आंखें उस रुप के स्रोत से किसी तरह तप्त न होंती. जब मैं अपनी नशें में डूबी हुई आंखो से उसे देखता तो मुझे एक आत्मिक तरावट-सी महसूस होती. मैं उसके दीदार के नशे से बेसुध-सा हो जाता और मेरी रचना-शक्ति का तो कुछ हद-हिसाब न था. ऐसा मालूम होता था कि जैसे दिल में मीठे भावों का सोता खुल गया था. 

अपनी कवित्व शक्ति पर खुद अचम्भा होता था. क़लम हाथ में ली और रचना का सोता-सा बह निकला. ‘नैरंग’ में ऊँची कल्पनाऍं न हो, बड़ी गूढ़ बातें न हों, मगर उसका एक-एक शेर प्रवाह और रस, गर्मी और घुलावट की दाद दे रहा है. यह उस दीपक का वरदान है, जो अब मेरे दिल में जल गया था और रोशनी दे रहा था. यह उस फुल की महक थी जो मेरे दिल में खिला हुआ था. मुहब्बत रुह की खुराक है. 

यह अमृत की बूंद है जो मरे हुए भावों को जिंदा कर देती है. मुहब्बत आत्मिक वरदान है. यह जिंदगी की सबसे पाक, सबसे ऊँची, मुबारक बरक़त है. यही अक्सीर थी जिसकी अनजाने ही मुझे तलाश थी. वह रात कभी नहीं भूलेगी जब आयशा दुल्हन बनी हुई मेरे घर में आयी. ‘नैरंग’ उसकी मुबारक जिंदगी की यादगार है. ‘दुनियाए हुस्न’ एक कली थी, ‘नैरंग’ खिला हुआ फूल है और उस कली को खिलाने वाली कौन-सी चीज है? वही जिसकी मुझे अनजाने ही तलाश थी और जिसे मैं अब पा गया था.

यह भी पढ़िए:

No comments:

Post a Comment

Bottom Ad [Post Page]