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premchand ki kahani-Kawach
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Premchand Stories in hindi- कवच

- प्रेमचंद

बहुत दिनों की बात है, मैं एक बड़ी रियासत का एक विश्वस्त अधिकारी था. जैसी मेरी आदत है, मैं रियासत की घड़ेबन्दियों से पृथक रहता न इधर, अपने काम से काम रखता. काजी की तरह शहर के अंदेशे से दुबला न होता था. महल में आये दिन नये-नये शिगूफे खिलते रहते थे, नये-नये तमाशे होते रहते थे, नये-नये षड़यंत्रों की रचना होती रहती थी, पर मुझे किसी पक्ष से सरोकार न था. किसी की बात में दखल न देता था, न किसी की शिकायत करता, न किसी की तारीफ. शायद इसीलिए राजा साहब की मुझ पर कृपा-दृष्टि रहती थी. 


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राजा साहब शीलवान्, दयालु, निर्भीक, उदार ओर कुछ स्वेच्छाचारी थे. रेजीडेण्ट की खुशामद करना उन्हें पसन्द न था. जिन समाचार पत्रों से दूसरी रियासतें भयभीत रहती थीं और और अपने इलाके में उन्हें आने न देती थीं, वे सब हमारी रियासत में बेरोक-टोक आते थे. एक-दो बार रेजीडेण्ट ने इस बारे में कुछ इशारा भी किया था, लेकिन राजा साहब ने इसकी बिल्कुल परवाह न की. अपने आंतरिक शासन में वह किसी प्रकार का हस्ताक्षेप न चाहते थे, इसीलिए रेजीडेण्ट भी उनसे मन ही मन द्वेष करता था. 

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लेकिन इसका यह आशय नहीं है कि राजा साहब प्रजावत्सल, दूरदर्शी, नीतिकुशल या मितव्ययी शासक थे. यह बात न थी. वे बड़े ही विलासप्रिय, रसिक और दुर्व्यसनी थे. उनका अधिकांश समय विषय-वासना की ही भेंट होता था. रनवास में दर्जनों रानियां थी, फिर भी आये दिन नई-नई चिड़ियां आती रहती थी. इस मद में लेशमात्र भी किफायत या कंजूसी न की जाती थी. सौन्दर्य की उपासना उनका गौण स्वभाव-सा हो गया था. इसके लिए वह दीन और ईमान तक की हत्या करने को तैयार रहते थे. वे स्वच्छन्द करना चाहते थे. 

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और चूंकि सरकार उन्हें बंधनों में डालना चाहती थी, वे उन्हें चिढ़ाने के लिए ऐसे मामलें में असाधारण अनुराग और उत्साह दिखाते थे, जिनमें उन्हें प्रजा की सहायता और सहानुभूति का पूरा विश्वास होता था, इसलिए प्रजा उनके दुर्गुणों को भी सदगुण समझती थी और अखबार वाले भी सदैव उनकी निर्भीकता और प्रजा-प्रेम के राग अलापते रहते थे. इधर कुछ दिनों से एक पंजाबी औरत रनवास में दाखिल हुई थी. उसके विषय में तरह-तरह की अफवाहें फैली हुई थीं. 

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कोई कहता था, मामूली, वेश्या है, कोई ऐक्ट्रेस बतलाता था, कोई भले घर की लड़की. न वह बहुत रूपवती थी, न बहुत तरदार, फिर भी राजा साहब उस पर दिलोजान से फिदा थे. राजकाज में उन्हें यों ही बहुत प्रेम न था, मगर अब तो वे उसी के हाथों बिक गये थे, वही उनके रोम-रोम में व्याप्त हो गई थी. उसके लिए एक नया राज-प्रसाद बन रहा था. नित नये-नये उपहार आते रहते थे. भवन की सजावट के लिए योरोप से नई-नई सामग्रियां मंगवाई थी. 

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उसे गाना और नाचना सिखाने के लिए इटली, फांस, और जर्मनी के उस्ताद बुलाये गये थे. सारी रियासत में उसी का डंका बजता था. लोगों को आश्चर्य होता था कि इस रमणी में ऐसा कौन-सा गुण हैं, जिसने राजा साहब को इतना आसक्त और आकर्षित कर रखा है. एक दिन रात को मैं भोजन करके लेटा ही था कि राजा साहब ने याद फर्माया. मन में एक प्रकार का संशय हुआ कि इस समय खिलाफ मामूल क्यों मेरी तलबी हुई! मैं राजा साहब के अन्तरंग मंत्रियों में से न था, इसलिए भय हुआ कि कहीं कोई विपत्ती तो नहीं आने वाली है. 

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रियासतों में ऐसी दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती है. जिसे प्रात: काल राजा साहब की बगल में बैठे हुए देखिए, उसे संध्या समय अपनी जान लेकर रियासत के बारह भागते हुए भी देखने में आया है. मुझे सन्देह हुआ, किसी ने मेरी शिकायत तो नहीं कर दी! रियासतो में निष्पक्ष रहना भी खतरनाक है. ऐसे आदमी का अगर कोई शत्रु नहीं होता तो कोई मित्र भी नहीं होता. मैंने तुरन्त कपड़े पहने और मन में तरह-तरह की दुष्कल्पनाएं करता हुआ राजा साहब की सेवा में उपस्थित हुआ. लेकिन पहली ही निगाह में मेरे सारें संशय मिट गये. 

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राजा साहब के चेहरे पर क्रोध की जगह विषाद और नैराश्य का गहरा रंग झलक रहा था. आंखों में एक विचित्र याचना झलक रही थी. मुझे देखते ही उन्होंने कुर्सी पर बैठने का इशारा किया, और बोले—‘क्यों जी सरदार साहब, साहब, तुमने कभी प्रेम किया है? किसी से प्रेम में अपने आपको खो बैठे हो?’ मैं समझ गया कि इस वक्त अदब और लिहाज की जरूरत नहीं. राजा साहब किसी व्यक्तिगत विषय में मुझसे सलाह करना चाहते है. नि:संकोच होकर बोला—‘दीनबंधु, मैं तो कभी इस जाल में नहीं फंसा.’ 

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राजा साहब ने मेरी तरफ खासदान बढ़ाकर कहा—तुम बड़े भाग्यवान् हो, अच्छा हुआ कि तुम इस जाल में नहीं फंसे. यह आंखों को लुभाने वाला सुनहरा जाल है यह मीठा किन्तु घातक विष है, यह वह मधुर संगीत है जो कानों को तो भला मालूम होता है, पर हृदय को चूर-चूर कर देता है, यह वह मायामृग है, जिसके पीछे आदमी अपने प्राण ही नहीं, अपनी इल्लत तक खो बैठता है. उन्होंने गिलास में शराब उंडेली और एक चुस्की लेकर बोले—जानते हो मैंने इस सरफराज के लिए कैसी-कैसी परिशानियां उठाई? 

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मैं उसके भौंहों के एक इशारे पर अपना यह सिर उसके पैरों पर रख सकता था, यह सारी रियाशत उसके चरणों पर अर्पित कर सकता था. इन्हीं हाथों से मैंने उसका पलंग बिछाया है, उसे हुक्का भर-भरकर पिलाया है, उसके कमरे में झाडू लगाई है. वह पंलग से उतरती थी, तो मैं उसकी जूती सीधी करता था. इस खिदमतगुजारी में मुझे कितना आनन्द प्राप्त होता था, तुमसे बयान नहीं कर सकता. मैं उसके सामने जाकर उसके इशारों का गुलाम हो जाता था. 

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प्रभुता और रियासत का गरूर मेरे दिल से लुप्त हो जाता था. उसकी सेवा-सुश्रूषा में मुझे तीनों लोक का राज मिल जाता था, पर इस जालिम ने हमेशा मेरी उपेक्षा की. शायद वह मुझे अपने योग्य ही नहीं समझती थी. मुझे यह अभिलाषा ही रह गई है कि वह एक बार अपनी उन मस्तानी रसीली आंखों से, एक बार उन होठों से मेरी तरफ मुस्कराती. मैंने समझा था शायद वह उपासना की ही वस्तु हैं, शायद उसे इन रहस्यों का ज्ञान नहीं. हां, मैंने समझा था, शायद अभी अल्हड़पन उसके प्रेमोदगारों पर मुहर लगाये हुए है. 


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मैं इस आशा से अपने व्यथित हृदय को तसकीन देता था कि कभी तो मेरी अभिलाषाएं पूरी होंगी, कभी तो उसकी सोई हुई कल्पना जागेगी. राजा साहब एकाएक चुप हो गये. फिर आदम शीशे की तरफ देखकर शान्त भाव से बोले—मै इतना कुरूप तो नहीं हूं कि कोई रमणी मुझसे इतनी घ़ृषा करे. राजा साहब बहुत ही रूपवान आदमी थे. ऊंचा कद था, भरा हुआ बदन, सेव का-सा रंग, चेरे से तेज झलकता था. मैंने निर्भीक होकर कहा—इस विषय में तो प्रकृति ने हुजूर के साथ बड़ी उदारता के साथ काम लिया है. 

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राजा साहब के चेहरे पर एक क्षीण उदास मुस्कराहट दौड़ गई, मगर फिर वहीं नैराश्य छा गया. बोले, सरदार साहब, मैंने इस बाजार की खूब सैर की है. सम्मोहन और वशीकरण के जितने लटके हैं, उन सबों से परिचित हूं, मगर जिन मंत्रों से मैंने अब तक हमेशा विजय पाई है, वे सब इस अवसर पर निरर्थक सिद्ध हुए. अन्त को मैंने यही निश्चय किया कि कुंआ ही अंधा है, इसमें प्यास को शांत करने की सामर्थ्य नहीं. मगर शोक, कल मुझ पर इस निष्ठुरता और उपेक्षा का रहस्य खुला गया. 

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आह! काश, यह रहस्य कुछ दिन और मुझसे छिपा रहता, कुछ दिन और मै इसी भ्रम, इसी अज्ञान अवस्था में पड़ा रहता. राजा साहब का उदास चेहरा एकाएक कठोर हो गया, उन शीतल नेत्रों में ज्वाला-सी चमक उठी, बोले—“देखिए, ये वह पत्र है, जो कल गुप्त रूप से मेरे हाथ लगे है. मैं इस वक्त इस बात की जांच-पंडताल करना व्यर्थ समझता हूं कि ये पत्र मेरे पास किसने भेजे? उसे ये कहां मिले? अवश्य ही ये सरफराज की अहित कामना के इरादे से भेजे गए होंगे.

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मुझे तो केवल यह निश्चय करना है कि ये पत्र असली है या नकली, मुझे तो उनके असली होने में अणुमात्र भी सन्देह नहीं है. मैंने सरफराज की लिखावट देखी है, उसकी बातचीत के अन्दाज से अनभिज्ञ नहीं हूं. उसकी जवान पर जो वाक्य चढ़े हुए हैं, उन्हें खूब जानता हूं. इन पत्रों में वही लिखावट हैं, कितनी भीषण परिस्थिति है. इधर मैं तो एक मधुर मुस्कान, एक मीठी अदा के लिए तरसता हूं, उधर प्रेमियों के नाम प्रेमपत्र लिखे जाते हैं, वियोग-वेदना का वर्णन किया जाता है. मैंने इन पत्रों को पढ़ा है, पत्थर-सा दिल करके पढ़ा है, खून का घूंट पी-पीकर पढ़ा है, और अपनी बोटियों को नोच-नोचकर पढ़ा है! आंखों से रक्त की बूंदें निकल-निकल आई हैं. 

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यह दगा! यह त्रिया-चरित्र!! मेरे महल में रहकर, मेरी कामनाओं को पैरों से कुचलकर, मेरी आशाओं को ठुकराकर ये क्रीड़ाएं होती हैं! मेरे लिए खारे पानी की एक बूंद भी नहीं, दूसरे पर सुधा-जल की वर्षा हो रही है! मेरे लिए एक चुटकी-भर आटा नहीं, दूसरे के लिए षटरस पदार्थ परसे जा रहे है. तुम अनुमान नहीं कर सकते कि इन पत्रों की पढ़कर मेरी क्या दशा हुई.” ‘पहला उद्वेग जो मेरे हृदय में उठा, वह यह था कि इसी वक्त तलवार लेकर जाऊं और उस बेदर्द के सामने यह कटार अपनी छाती में भोंक लूं. 

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उसी के आंखों के सामने एडियां रगड़-रगड़ मर जाऊं. शायद मेरे बाद मेरे प्रेम की कद्र करे, शायद मेरे खून के गर्म छीटें उसके वज्र-कठोर हृदय को द्रवित कर दें, लेकिन अन्त:स्थल के न मालूम किस प्रदेश से आवाज आई—यह सरासर नादानी है. तुम मर जाओंगे और यह छलनी तुम्हारे प्रेमोपहारों से दामन भरे, दिल में तुम्हारी मुर्खता पर हंसती हुई, दूसरे ही दिन अपने प्रियतम के पस चली जाएगी.’ दोनों तुम्हारी दौलत के मजे उड़ाएंगे और तुम्हारी वंचित-दलित आत्मा को तड़पाएंगे. 

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‘सरदार साहब, विश्वास मानिए, यह आवाज मुझे अपने ही हृदय के किसी स्थल से सुनाई दी. मैंने उसी वक्त तलवार निकालकर कमर से रख दी. आत्महत्या का विचार जाता रहा, और एक ही क्षण में बदले का प्रबल उद्वेग हृदय में चमक उठा. देह का एक-एक परमाणु एक आन्तरिक ज्वाला से उत्तप्त हो उठा. एक-एक रोएं से आग-सी निकलने लगी. इसी वक्त जाकर उसकी कपट-लीला का अन्त कर दूं. जिन आंखों की निगाह के लिए अपने प्राण तक निछावर करता था, उन्हें सदैव के लिए ज्योतिहीन कर दूं. 

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उन विषाक्त अधरों को सदैव के लिए स्वरहीन कर दूं. जिस हृदय में इतनी निष्ठुरता, इतनी कठोरता ओर इतना कपट भरा हुआ हो, उसे चीरकर पैरों से कुचल डालूं. खून-सा सिर पर सवार हो गया. सरफराज की सारी महत्ता, सारा माधुर्य, सारा भाव-विलास दूषित मालूम होने लगा. उस वक्त अगर मुझ मालूम हो जाता कि सरफराज की किसी ने हत्या कर डाली है, तो शायद मैं उस हत्यारें के पैरों का चुम्बन करता. अगर सुनता कि वह मरणासन्न है तो उसके दम तोड़ने का तमाशा करता, खून का दृढ़ संकल्प करके मैंने दुहरी तलवारें कमर में लगाई और उसके शयनागार में दाखिल हुआ. 

जिस द्वार पर जाते ही आशा और भय का संग्राम होने लगता था, वहां पहुंचकर इस वक्त मुझे वह आनन्द हुआ जो शिकारी को शिकार करने में होता है. सरदार साहब, उन भावनाओं और उदगारों का जिक्र न करूंगा, जो उस समय मेरे हृदय को आन्दोलित करने लगे. अगर वाणी में इतनी सामर्थ्य हो, तो मन को इस चर्चा से उद्विग्न नहीं करना चाहतां मैंने दबे पांव कमरे में कदम रखा. सरफराज विलासमय निद्रा में मग्न थी. मगर उसे देखकर मेरे हृदय में एक विचित्र करूणा उत्पन्न हुई. जी हाँ, वह क्रोध और उत्ताप न जाने कहां गायब हो गया. उसका क्या अपराध है? 

यह प्रश्न आकस्मिक रूप से मेरे हृदय में पैदा हुआ. उसका क्या अपराध है? अगर उसका वही अपराध है जो इस समय मैं कर रहा हूं, तो मुझे उससे बदला लेने का क्या अधिकार है? अगर वह अपने प्रियतम के लिए उतनी ही विकल, उतनी ही अधीर, उतनी ही आतुर है जितना मैं हूं, तो उसका क्या दोष है? जिस तरह मैं अपने दिल से मजबूर हूं, क्या वह भी अपने दिल से मजबूर रत्नों से मेरे प्रेम को बिसाहना चाहे, तो क्या मैं उसके प्रेम में अनुरक्त हो जाऊँगा? शायद नहीं. मैं मौका पाते ही भाग निकलूंगा. यह मेरा अन्याय है. 

अगर मुझमें वह गुण होते, तो उसके अज्ञात प्रियतम में है, तो उसकी तबीयत क्यों मेरी ओर आकर्षित न होती? मुझमें वे बातें नहीं है कि मैं उसका जीवन-सर्वस्व बन सकूं. अगर मुझे कोई कड़वी चीज अच्छी नहीं लगती, तो मैं स्वभावत: हलवाई की दुकान की तरफ जाऊंगा, जो मिठाइयां बेचता है. सम्भव है धीरे-धीरे मेरी रूचि बदल जाय और मैं कड़वी चीजें पसन्द करने लगू. लेकिन बलात् तलवार की नोक पर कोई कड़वी चीज मेरे मुंह में नहीं डाल सकता. इन विचारों ने मुझे पराजित कर दिया. 

वह सूरत, जो एक क्षण पहले मुझे काटे खाती थी उसमें पहले से शतगुणा आकर्षण था. अब तक मैंने उसको निद्रा-मग्न न देखा था, निद्रावस्था में उसका रूप और भी निष्कलंक और अनिन्द्य मालूम हुआ. जागृति में निगाह कभी आंखों के दर्शन करती, कभी अधरों के, कभी कपोलों के. इस नींद मे उसका रूप अपनी सम्पूर्ण कलाओं से चमक रहा था. रूप-छटा था कि दीपक जल रहा था.‘ राजा साहब ने फिर प्याला मुंह से लगाया, और बोले—‘सरदार साहब, मेरा जोश ठंडा हो गया. जिससे प्रेम हो गया, उससे द्वेष नहीं हो सकता, चाहे वह हमारे साथ कितना ही अन्याय क्यों न करे. 

जहां प्रेमिका प्रेमी के हाथों कत्ल हो, वहां समझ लीजिए कि प्रेम न था, केवल विषय-लालसा थी, में वहां से चला आया, लेकिन चित्त किसी तरह शान्त नहीं होता तब उसे अब तक मैंने क्रोध को जीतने की भरसक कोशिश की, मगर असफल रहा. जब तक वह शैतान जिन्दा है, मेरे पहलू में एक कांटा खटकता रहेगा, मेरी छाती पर सांप लौटता रहेगा. वहीं काला नाम फन उठाये हुए उस रत्न-राशि पर बैठा हुआ है, वहीं मेरे और सरफराज के बीच में लोहे की दीवार बना हुआ है, वहीं इस दूध की मक्खी है. 

उस सांप का सिर कुचलना होगा, जब तक मैं अपनी आंखों से उसकी धज्जियां बिखरते न देखूंगा. मेरी आत्मा को संतोष न होगा. परिणाम की कोई चिन्ता नहीं कुछ भी हो, मगर उस नर-पिशाच को जहन्नुम दाखिल करके दम लूंगी.’ यह कहकर राजा साहब ने मेरी ओर अश्रूपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—बतलाइए आप मेरी क्या मदद कर सकते है? मैने विस्मय से कहा—मैं? राजा साहब ने मेरा उत्साह बढाते हुए कहा—‘हां, आप. आप जानते हैं, मैंने इतने आदमियों को छोड़कर आपकों क्यों अपना विश्वासपात्र बनया और क्यो आपसे यह भिक्षा मांगी? 

यहां ऐसे आदमियों की कमी नहीं है, जो मेरा इशारा पाते ही उस दुष्ट के टुकड़े उड़ा देगें, सरे बाजार उसके रक्त से भूमि को रंग देंगे. जी हां, एक इशारे से उसकी हड्डियों का बुरादा बना सकता हूं., उसके नहों में कीलें ठुकवा सकता हूं., मगर मैंने सबकों छोड़कर आपकों छांटा, जानतें हो क्यों? इसलिए कि मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास है, वह विश्वास जो मुझे अपने निकटतम आदमियों पर भी नहीं, मैं जानता हूं. कि तुम्हारे हृदय में यह भेद उतना ही गुप्त रहेगा, जितना मेरे. 

मुझे विश्वास है कि प्रलोभन अपनी चरम शक्ति का उपयोग करके भी तुम्हें नहीं डिगा सकता. पाशविक अत्याचार भी तुम्हारे अधरों को नहीं खोल सकते, तुम बेवफाई न करोगे, दगा न करोगे, इस अवसर से अनुचित लाभ न उठाओंगे, जाते हो, इसका पुरस्कार क्या होगा? इसके विषय में तुम कुछ भी शंका न करों. मुझमें और चाहे कितने ही दुर्गुण हों, कृतध्नता का दोष नहीं है. बड़े से बड़ा पुरस्कार जो मेरे अधिकार में है, वह तुम्हें दिया जाएगा. मनसब, जागीर, धन, सम्मान सब तुम्हारी इच्छानुसार दिये जाएंगे. इसका सम्पूर्ण अधिकार तुमकों दिया जाएगा, कोई दखल न देगा. 

तुम्हारी महत्वाकांक्षा को उच्चतम शिखर तक उड़ने की आजादी होगी. तुम खुद फरमान लिखोगे और मैं उस पर आंखें बंद करके दस्तखत करूंगा; बोलो, कब जाना चाहते हो? उसका नाम और पता इस कागज पर लिखा हुआ है, इसे अपने हृदय पर अंकित कर लो, और कागज फाड़ डालो. तुम खुद समझ सकते हो कि मैंने कितना बड़ा भार तुम्हारे ऊपर रखा है. मेरी आबरू, मेरी जान, तुम्हारी मुट्ठी में हैं. मुझे विश्वास है कि तुम इस काम को सुचारू रूप से पूरा करोगे. जिन्हें अपना सहयोगी बनाओंगे, वे भरोसे के आदमी होंगे. तुम्हें अधिकतम बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता और धैर्य से काम लेना पड़ेगा. 

एक असंयत शब्द, एक क्षण का विलम्ब, जरा-सी लापरवाही मेरे और तुम्हारें दोनों के लिए प्राणघातक होगी. दुश्मन घात में बैठा हुआ है, ’कर तो डर, न कर तो डर’ का मामला है. यों ही गद्दी से उतारने के मंसूबें सोचे जा रहे हैं, इस रहस्य के खुल जाने पर क्या दुर्गति होगी, इसका अनुमान तुम आप कर सकते हो. मैं बर्मा में नजरबन्द कर दिया जाऊंगा, रियासत गैरों के हाथ मे चली जाएगी और मेरा जीवन नष्ट हो जाएगा. में चाहता हूं कि आज ही चले जाओ. 

यह इम्पीरियल बैंक का चेक बुक है, मैंने चेको पर दस्तखत कर दिए है, जब जितने रूपयों की जरूरत हों, ले लेना. ‘मेरा दिमाग सातवें आसमान पर जा पहुंचा. अब मुझे मालूम हुआ कि प्रलोभन में ईमान को बिगाड़ने की कितनी शक्ति होती है. मुझे जैसे कोई नशा हो गया.’ मैंने एक किताब में पढ़ा था कि अपने भाग्य-निर्माण का अवसर हर एक आदमी को मिलता है और एक ही बार. जो इस अवसर को दोनों हाथो से पकड़ लेता है, वह मर्द है, जो आगा-पीछा में पड़कर उसे छोड़ देता है, वह कायर होता है. 

एक को धन, यश, गौरव नसीब होता है और दूसरा खेद, लज्जा और दुर्दशा में रो-रोकर जिंदगी के दिन काटता है. फैसला करने के लिए केवल एक क्षण का समय मिलता है. वह समय कितना बहुमूल्य होता है. मेरे जीवन में यह वही अवसर था. मैंने उसे दोनों हाथों से पकड़ने का निश्चय कर लिया. सौभाग्य अपनी सर्वोत्तम सिद्धियों का थाल लिए मेरे सामने हाजिर है, वह सारी विभूतियों जिनके लिए आदमी जीता-मरता है, मेरा स्वागत करने के लिए खड़ी है. अगर इस समय मै. उनकी उपेक्षा करूं, तो मुझ जैसा अभागा आदमी संसार में न होगा. 

माना कि बड़े जोखिम का काम है, लेकिन पुरस्कार तो देखों. दरिया में गोता लगाने ही से तो मोती मिलता है, तख्त पर बेठे हुए कायरों के लिए कोड़ियों और घोंघों के सिवा और क्या है? माना कि बेगुनाह के खून से हाथ रंगना पड़ेगा. क्या मुजायका! बलिदान से ही वरदान मिलता है. संसार समर भूमि है. यहाँ लाशों का जीना बनाकर उन्नति के शिखर पर चढ़ना पड़ता है. खून के नालों में तैरकर ही विजय-तट मिलता है. 

संसार का इतिहास देखों,. सफल पुरूषों का चरित्र रक्त के अक्षरों में लिखा हुआ है. वीरो ने सदैव खून के दरिया में गोते लगाये हैं, खून की होलियां खेली है. खून का डर दुर्बलता और कम हिम्मती का चिह्न है. कर्मयोगी की दृष्टि लक्ष्य पर रहती हैं, मार्ग पर नहीं, शिखर पर रहती है, मध्यवर्ती चट्टानों पर नहीं, मैंने खड़े होकर अर्ज की—गुलाम इस खिदमत के लिए हाजिर हे.’ राजा साहब ने सम्मान की दृष्टि से देखरक कहा—मुझे तुमसे यही आशा थी. तुम्हारा दिल कहता है कि यह काम पूरा कर आओगे? 

‘मुझे विश्वास है.’ ‘मेरा भी यही विचार था. देखो, एक-एक क्षण का समाचार भेजते रहना.’ ‘ईश्वर ने चाहा तो हुजूर को शिकायत का कोई मौका न मिलेगा.’ ‘ईश्वर का नाम न लो, ईश्वर ऐसे मौक के लिए नहीं है. ईश्वर की मदद उस वक्त मांगो, जब अपना दिल कमजोर हो. जिसकी बांहों में शक्ति, मन में विकल्प, बुद्धि में बल और साहस है, वह ईश्वर का आश्रय क्यों ले? अच्छा, जाओं और जल्द सुर्खरू होकर लौटो, आंखें तुम्हारी तरफ लगी रहेंगी.’

मैंने आत्मा की आलोचनाओं को सिर तक न उठाने दिया. उस दुष्ट को क्या अधिकार था कि वह सरफराज से ऐसा कुत्सित सम्बंध रखे, जब उसे मालूम था कि राजा साहब ने, उसे अपने हरम में दाखिल कर लिया है? यह लगभग उतना ही गर्हित अपराध है, जितना किसी विवाहित स्त्री को भगा ले जाना. सरफराज एक प्रकार से विवाहिता है, ऐसी स्त्री से पत्र-व्यवहार करना और उस पर डोरे डालना किसी दशा में भी क्षम्म नहीं हो सकता. ऐसे संगीन अपराध की सजा भी उतनी ही संगीन होनी चाहिए. 

अगर मेरे हृदय में उस वक्त तक कुछ दुर्बलता, कुछ संशय, कुछ अविश्वास था, तो इस तर्क ने उसे दूर कर दिया. सत्य का विश्वास सत्-साहस का मंत्र है. अब वह खून मेरी नजरों में पापमय हत्या नहीं, जायज खून था और उससे मुंह मोड़ना लज्जाजनक कायरता. गाड़ी के जाने में अभी दो घण्टे की देर थी. रात-भर का सफर था, लेकिन भोजन की ओर बिल्कुल रूचि न थी. मैंने सफर की तैयारी शुरू की. 

बाजाद से एक नकली दाढ़ी लाया, ट्रंक में दो रिवाल्वर रख लिये, फिर सोचने लगा, किसे अपने साथ ले चलूं? यहां से किसी को ले जाना तो नीति-विरूद्ध है. फिर क्या अपने भाई साहब को तार दूँ? हां, यही उचित है. उन्हें लिख दूँ कि मुझसे बम्बई में आकर मिलें, लेकिन नहीं, भाई साहब को क्यों फंसाऊं? कौन जाने क्या हो? बम्बई में ऐसे आदमी की क्या कमी? एक लाख रूपये का लालच दूंगा. चुटकियों में काम हो जाएगा. वहां एक से एक शातिर पड़े है, जो चाहें तो फरिश्तों का भी खून कर आयें. 

बस, इन महाशय को किसी हिकमत से किसी वेश्या के कमरे में लाया जाय और वहीं उनका काम तमाम कर दिया जाय. या समुद्र के किनारे जब वह हवा खाने निकलें, तो वहीं मारकर लाश समुद्र में डाल दी जाय. अभी चूंकि देर थी, मैंने सोचा, लाओं सन्ध्या कर लूं. ज्योंही सन्ध्या के कमरे में कदम रखा, माता जी के तिरंगे चित्र पर नजर पड़ी. मैं मूर्ति-पूजक नहीं हूं, धर्म की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं है, न कभी कोई व्रत रखता हूँ, लेकिन न जाने क्यो, उस चित्र को देखकर अपनी आत्मा में एक प्रकाश का अनुभव करता हूं. 

उन आंखों में मुझे अब भी वही वात्सल्यमय ज्योति, वही दैवी आशीर्वाद मिलता है, जिसकी बाल-स्मृति अब भी मेरे हृदय को गदगद कर देती है. वह चित्र मेरे लिए चित्र नहीं, बल्कि सजीव प्रतिमा है, जिसने मेरी सृष्टि की है और अब भी मुझे जीवन प्रदान कर रही है. उस चित्र को देखकर मैं यकायक चौंक पड़ा, जैसे कोई आदमी उस वक्त चोर के कंधे पर हाथ रख उदे जब वह सेंध मार रहा हो. इस चित्र को रोज ही देखा करता था, दिन में कई बार उस पर निगाह पड़ती थी पर आज मेरे मन की जो दशा हुई, वह कभी न हुई थी. 

कितनी लज्जा और कितना क्रोध! मानों वह कह रही थी, मुझे तुझसे ऐसी आशा न थी. मैं उस तरफ ताक न सका. फौरन आंखें झुका ली. उन आंखों के सामने खड़े होने की हिम्मत मुझे न हुई. वह तस्वीर की आंखें न थी, सजीव, तीव्र और ज्वालामय, हृदय में पैठने वाली, नोकदार भाले की तरह हृदय में चुभने वाली आंखें थी. मुझे ऐसा मालूम हुआ, गिर पडूंगा. मैं वहीं फर्श पर बैठ गया. मेरा सिर आप ही आप झुक गया. 

बिल्कुल अज्ञातरूप से मानो किसी दैवी प्रेरणा से मेरे संकल्प में एक में क्रान्ति-सी हो गई. उस सत्य के पुतले, उस प्रकाश की प्रतिमा ने मेरी आत्मा को सजग कर दिया. मन-में क्या–क्या भाव उत्पन्न हुए, क्या-क्या विचार उठे, इसकी मुझे खबर नहीं. मैं इतना ही जानता हूं कि मैं एक सम्मोहित दशा में घर से निकला, मोटर तैयार कराई और दस बजे राजा साहब की सेवा में जा पहुंचा. मेरे लिए उन्होंने विशेष रूप से ताकीद कर दी थी. 

जिस वक्त चाहूं, उनसे मिल सकूं. कोई अड़चन न पड़ी. में जाकर नम्र भाव से बोला—हुजूर, कुछ अर्ज करना चाहता हूं. राजा साहब अपने विचार में इस समस्या को सुलझाकर इस वक्त इत्मीनान की सांस ले रहे थे. मुझे देखकर उन्हें किसी नई उलझन का संदेह हुआ. त्योरियों पर बल पड़ गये, मगर एक ही क्षण में नीति ने विजय पाई, मुस्कराकर बोले—हां हां, कहिए, कोई खास बात? मैंने निर्भीक हेाकर कहा—मुझे क्षमा कीजिए, मुझसे यह काम न होगा. राजा साहब का चेहरा पीला पड़ गया, मेरी ओर विस्मत से देखकर बोले—इसका मतलब?’ 

मैं यह काम न कर सकूंगा.‘ ’क्यों?’ ’मुझमें वह सामर्थ्य नहीं है. राजा साहब ने व्यंगपूर्ण नेत्रों से देखकर कहा—शायद आत्मा जागृत हो गई, क्यो? वही बीमारी, जो कायरों और नामर्दों को हुआ करती है. अच्छी बात है, जाओ. ‘हुजूर, आप मुझसे नाराज न हों, मैं अपने में वह.....‘ राजा साहब ने सिंह की भांति आग्नेय नेत्रों से देखते हुए गरजकनर कहा—मत बको, नमक... फिर कुछ नम्र होकर बोले—तुम्हारे भाग्य में ठोकरें खाना ही लिखा है. मैंने तुम्हें वह अवसर दिया था, जिसे कोई दूसरा आदमी दैवी वरदान समझता, मगर तुमने उसकी कद्र न की.

तुम्हारी तकदीर तुमसे फिरी हुई है. हमेशा गुलामी करोगे और धक्के खाओगे. तुम जैसे आदमियों के लिए गेरूए बाने है. और कमण्डल तथा पहाड़ की गुफा. इस धर्म और अधर्म की समस्या पर विचार करने के लिए उसी वैराग्य की जरूरत है. संसार मर्दों के लिए है. मैं पछता रहा था कि मैंने पहले ही क्यों न इन्कार कर दिया. राजा साहब ने एक क्षण के बाद फिर कहा—अब भी मौका है, फिर सोचों. मैंने उसी नि:शक तत्परता के साथ कहा—हुजूर, मैंने खूब सोचा लिया है. 

राजा साहब होंठ दांतों से काटकर बोले—बेहतर है, जाओं और आज ही रात को मेरे राज्य की सीमा के बाहर निकल जाओ. शायद कल तुम्हें इसका अवसर न मिले. मैं न मालूम क्या समझकर तुम्हारी जान बख्शी कर रहा हू. न जाने कौन मेरे हृदय में बैठा हुआ तुम्हारी रक्षा कर रहा है. मै. इस वक्त अपने आप में नहीं हूँ, लेकिन मुझे तुम्हारी शराफत पर भरोसा है. मुझे अब भी विश्वास है कि हइस मामले को तुम दीवार के सामने भी जबान पर न लाओंगे. मैं चुपके से निकल आया और रातों-रात राज्य के बाहर पहुंच गयां मैंने उस चित्र के सिवा और कोई चीज अपने साथ न ली. इधर सूर्य ने पूर्व की सीमा में पर्दापण किया, उधर मैं रियासत की सीमा से निकल करह अंग्रेजी इलाके में जा पहुंचा.


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