5 Motivational Story Change Your Life |
Motivational Stories in Hindi on life and Career
1.पैसे का रोग
एक बार राजा परीक्षित के सामने हाथ जोड़कर महाराज कलियुग प्रार्थना करने लगे कि आपके राज्य में रहने के लिए मुझे भी कोई स्थान बताइये. इस पर विचार कर परीक्षित ने कहा- ‘जहां चोरी, जुआ, शराब और वेश्या हो, वहां तुम अपना अड्डा जमा लो, परन्तु ये चारों जहां एक साथ रहते हों, वह स्थान कैसे ढूंढोगे? उसे ढूंढना हो तो सम्पति की प्रचुरता वाला स्थान देखों-
बधिरयति कर्णविवरम्, वाचं मूकयति नयनमन्धयति।विकृतयति गात्रयष्टिम्, सम्पद् रोगोऽयमद्भुतो राजन्।।
सम्पति एक ऐसा अद्भुत रोग है, जो कानों का बहरा, वाणी को गूंगा, आंखों को अन्धा और शरीर को विकारयुक्त बना देता है. एक अन्य कवि ने सम्पति की निन्दा में कहा है-
अर्जुनीयति यदर्जने जनो,वर्जनीयजनतर्जनाविभिः।मक्षु नश्यति चिराय स्चिता,वचिता जगति के न सम्पदा।।
Moral of The Story:
निन्दनीय पुरूषों की डांट-फटकार सुनकर भी लोग अर्जुन की तरह जिसके अर्जन में लगे रहते हैं, वह चिरसंचित भी शीघ्र नष्ट हो जाती है। भला कौन है जिन्हें धन ने ठगा न हो?
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2. निंदा की समस्या
पण्डित महामना मदनमोहन मालवीय के सामने एक युवक आया. उसने कहा कि मैंने अच्छे-अच्छे सज्जनों की सूक्तियों पढ़-सुन-कर अपने मन को साध लिया है. अब कठोर से कठोर वचन भी मुझे क्षुब्ध नहीं कर सकते. मैं जानता हूंः-
‘अहो वयई कोहेण.‘— अर्थात क्रोध से आत्मा का पतन होता है।
पतन से आत्मा की रक्षा करने के लिए मैंने गुस्सा करना छोड़ दिया है. हजारों गालियां सुनकर भी मैं गुस्सा नहीं करता. आप चाहें जो गालियां देकर मेरी परीक्षा कर लें.
मालवीयजी ने हंसते हुए कहाः ‘भाई ! मैं इतना मूर्ख नहीं हूं कि तुन्हें गुस्सा दिलाने से पहले अपनी जीभ गालियों से गन्दी करूं.
कहा हैंः-
मूर्ख रसना परापवादगूथं समुद्धरेत्— मूर्खों की जीभ ही पर-निन्दा रूपी विष्ठा को साफ करती है या उठाती है.
और भी कहा हैः-
स्व-प्रशंसेवान्यनिन्दा, सतां नलज्जाकरी खतु.— आत्मा-प्रशंसा के समान पर-निन्दा भी सज्जनों को लज्जित करती है.
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3. न्याय
एक सेठजी की दो पत्नियां थीं- कान्ता और शान्ता. शान्ता से हुए एक पुत्र को छोड़कर वे स्वर्गवासी हो गये. कुछ ही दिनों बाद कान्ता और शान्ता में पुत्र को लेकर विवाद पैदा हो गया. प्रत्येक का यह दावा था कि पुत्र उसी का है, दूसरी का नहीं. मामला राजदरबार में पहुंचा. असली माता की परीक्षा कैसे की जाय? यह समस्या खड़ी हो गई. वहां की महारानी मंगल ने सोचा
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते, निघर्षण-च्छेदन-ताप-ताहनैः।तथा चतुर्भिः पुरूषः परीक्ष्यते, त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।
अर्थात जिस प्रकार घिस कर, काट कर, तपा कर और पीट कर चार तरह से सोने की परीक्षा की जाती है, उसी प्रकार त्याग, शील, गुण और कर्म से पुरूष की परीक्षा की जाती है.
महारानी को परीक्षा एक अद्भुत उपाय सूझा. उसने आदेश दिया कि इस बालक के तत्काल दो टुकड़े करके एक टुकड़ा दोनों को दे दो.
आदेश सुनकर कान्ता चुप रही, किन्तु शान्ता ने गिड़गिड़ा कर कहाः ‘आप यह बालक कान्ता को दे दीजिये, किन्तु टुकड़े मत कीजिए. मैं उसे जीवित देखकर ही सतुष्ट रहूंगी.‘
इससे परीक्षा हो गई। महारानी ने बालक शान्ता को सौंप दिया. वही असली माता थी, जो त्याग करने को तैयार हो गई थी. सबने इन न्याय की प्रशंसा की.
एको ही चक्षुरमलः सहजो विवेकः।।
Moral of the Story:
सहज विवेक न्याय की कूंजी है.
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4.गुलामी का त्याग
बाहर मूसलाधार वर्षा हो रही थी. घर में खाने को कुछ नहीं था. एक पत्नी अपने पति से भीख मांग कर कुछ लाने को कह रही थी. उत्तर में पति तीखे स्वर में बोल रहा थाः ‘अरी मूर्ख! ऐसी घोर वर्षा में तो गुलाम या नौकर को छोड़कर कोई दूसरा बाहर नहीं जा सकता. यहां तक कि कुत्ता भी बाहर नहीं निकलता, फिर मैं तो मनुष्य हूं.
भिखारी की यह बात सुनकर बादशाह अल्लाउद्दीन के बंगाली बजीर रूपगोप स्वामी सुन रहे थे, जो उस समय अपने कार्यालय (राजमहल) को जाते हुए उस गरीब की झोंपड़ी के निकट होकर गुजर रहे थे. भिखारी के कथन ने उनके ह्दय को झकझोर कर रख दिया. मन-ही-मन अपने आराध्य से वें प्रार्थना करने लगेः-
स्वतन्त्रो देव! भूयासं, सारेयोऽपि बत्मंनि।मा स्म भूवं परायस-स्त्रिलोकस्यापि नायकः।।
हे देव! मैं स्वतंत्र रहूं, भले ही इसके लिए रास्ते का कुत्ता बनना पडे़, परन्तु पराधीन त्रिलोकनायक भी न बनूं. राज दरबार में पहुंचते ही उन्होंने अपना त्याग पत्र बादशाह के सामने रख दिया और वहां से सीधे ही चैतन्य महाप्रभु के चरणों के के निकट पहुंच कर वे उनके शिष्य बन गये. कहा भी है कि परतन्त्र जीवन कुत्ते से भी गया बीता है.
सेवा श्ववृत्त्यिां रक्त, न तैः सम्यगुदाहव्म्।स्वच्छन्छचारी कुत्र श्वा, विफ्रीतासुः दव सेवकः?
सेवा का कुत्ते की जीविका बताने वालों ने ठीक उदाहरण नहीं दिया. भला स्वच्छन्दचारी कुत्ता कहां और प्राण बेचने वाला सेवक कहां?
5. परोपकार का कारण
अमेरिका के राष्ट्रपति लिंकन एक दिन अपनी संसद में जा रहे थे. मार्ग में उन्हें एक सूअर कीचड़ में फंसकर बाहर निकलने के लिए छटपटाता हुआ दिखाई दिया. कार से उतर कर लिंकन तत्काल सूअर के पास पहुंचे और उसे बाहर निकालकर आगे बढ़ गये. कहा भी है—परोपकारः कर्तव्यः प्राणंरपि धर्नरपि— प्राणों की बाजी लगाकर भी और धन से भी परोपकार करना चाहिये।
संसद के सदस्यों ने जब देखा कि राष्ट्रपति की पोशाक पर कीचड़ के धब्बे लगे हैं, तब उन्होंने ड्राइवर से पूछकर उसके कारण का पता लगा लिया. फिर प्रसन्न होकर वे उनके उस दयापूर्ण कार्य की मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने लगे.
यह सब देखकर निरभिमानी लिंकन ने उत्तर दिया- ‘आप मेरी प्रशंसा व्यर्थ कर रहे हैं। मैंने कोई प्रशंसनीय कार्य नहीं किया है. सूअर को छटपटाते देखकर मेरा मन भी छटपटाने लगा था. सूअर को बाहर निकाल कर मैंने अपने ही मन का दुःख बाहर निकाला है.
परोपकृतिकैवल्ये, तोलयित्वा जनार्दनः।गुर्वीमुपकृतिं मत्वा, अवतारान् दशाग्रहीत्।।
परोपकार और कैवल्य को विष्णु ने तोला तो परोपकार को भारी पाकर उन्होंने दस अवतार लिये।
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