जापान के एक सम्राट ने एक दफा अपने वजीरों को कहा कि तुम जाकर पता लगाओ, अगर कहीं कोई साधु हो तो मैं उससे मिलना चाहता हूं.
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तो वजीरों ने कहा, यह बहुत मुश्किल काम है. सम्राट ने कहा, मुश्किल? मैं तो रोज सड़क से भिक्षुओं को, साधुओं को निकलते देखता हूं.
उन वजीरों ने कहा कि वह सब ठीक है, वे दिखने वाले साधु हैं. साधु ही चाहिए न? बहुत कठिन है, वर्षों लग सकते हैं. फिर भी हम खोज करते हैं. उन्होंने बहुत खोज-बीन की.
आखिर वे खबर लाए कि एक पहाड़ पर एक बूढ़ा है. और जल्दी करिए, क्योंकि वह किसी भी क्षण मर सकता है, अत्यंत बूढ़ा है. आप जल्दी चलिए. हम सब खोज-बीन करके लाए हैं--वह आदमी है कि साधु है.
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सम्राट गया तो वह बूढ़ा वृक्ष से दोनों पैर फैलाए हुए आराम से टिका हुआ बैठा था. सम्राट जाकर खड़ा हो गया तो उसने न तो सम्राट को उठ कर नमस्कार किया, जैसा कि सम्राट की अपेक्षा थी!
क्योंकि सम्राट आया है तो कम से कम उठ कर नमस्कार करना चाहिए, न उसने पैर सिकोड़े, वह पैर फैलाए ही बैठा रहा! न उसने इसकी कोई फिक्र की कि सम्राट आया है तो कुछ हुआ है! वह जैसा बैठा था, बैठा रहा!
सम्राट ने कहा कि आप जाग तो रहे हैं न? नींद में तो नहीं हैं? मैं सम्राट हूं. खड़े होकर नमस्कार करने का शिष्टाचार नहीं निभाते हैं आप! पैर फैला कर अशिष्ट ग्रामीणों की तरह बैठे हैं! और मैं तो यह सुन कर आया कि मैं एक साधु के पास जा रहा हूं!
वह बूढ़ा खूब खिल-खिला कर हंसने लगा. और उसने कहा कि कौन सम्राट और कौन साधु! ये सब नींद के हिस्से हैं. उस बूढ़े ने कहा, कौन सम्राट, कौन साधु! ये सब नींद के हिस्से हैं. कौन किसको आदर दे, कौन किससे आदर ले? ये सब नींद के हिस्से हैं.
अगर साधु के पास आना हो तो सम्राट होना छोड़ कर आओ, क्योंकि सम्राट और साधु का मेल कैसे होगा? बड़ा मुश्किल हो जाएगा. तुम कहीं पहाड़ पर खड़े हो, हम कहीं गङ्ढे में विश्राम कर रहे हैं. मेल कहां होगा? मुलाकात कैसे होगी?
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साधु से मिलना है तो सम्राट होना छोड़ कर आओ. और रही पैर सिकोड़ने-फैलाने की बात. अगर शरीर पर ही नजर है तो यहां तक आने की व्यर्थ कोशिश क्यों की? अगर इस पर ही दृष्टि अटकी है तो नाहक तुम पहाड़ चढ़े, मेहनत हुई, पसीना बह गया। वापस लौट जाओ.
बात सुन कर सम्राट को लगा कि आदमी असाधारण है. उसके पास कुछ दिन रुका, उसके जीवन को देखा, परखा, पहचाना. उसके जीने को समझा. बहुत आनंदित हुआ.
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जाते वक्त एक बहुमूल्य मखमल का कोट, जिसमें लाखों रुपए के हीरे-जवाहरात जड़े हैं--उसने कहा कि मैं यह कोट आपको भेंट करना चाहता हूं.
तो उस साधु ने कहा कि तुम भेंट करो और मैं न लूं तो तुम दुखी होओगे. लेकिन तुम तो भेंट करके चले जाओगे, ये जंगल के पशु-पक्षी ही यहां मेरे जान-पहचान के हैं, ये सब मुझ पर बहुत हंसेंगे कि बुढ़ापे में भी इसको बचपना सूझा?
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उस फकीर ने कहा, बुढ़ापे में इसको बचपना...! ये सब हंसेंगे, बहुत हंसेंगे! ये सब बंदर, ये पक्षी, ये सब बहुत हंसने लगेंगे कि इस बूढ़े को देखो, क्या सूझा! ये बंदर, ये पक्षी, ये कौए, ये तोते, इनको हीरे-जवाहरात का कोई भी मूल्य नहीं है.
तुम सोचते हो कि करोड़ों की चीज दिए जा रहे हो, लेकिन वे आंखें कहां, जो इनको करोड़ों का समझती हैं?
इधर मैं निपट अकेला हूं. ये पशु-पक्षी मेरे साथी हैं, ये इनको कंकड़-पत्थर समझेंगे और मुझको पागल समझेंगे.
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तुम यह कोट ले जाओ. किसी दिन कोई बहुमूल्य चीज तुम्हें लगे तो ले आना, जिसको यहां भी समझा जा सके.
इस एकांत पहाड़ पर, इन सूने खड़े वृक्षों के नीचे, ये पक्षी, यह आकाश, ये चांदत्तारे जिसे बहुमूल्य समझ सकें, किसी दिन हो तो ले आना.
वह सम्राट वापस लौटा. उसने अपने वजीरों से कहा कि मुझे कुछ न कुछ तो भेंट देनी ही चाहिए. लेकिन ऐसी कौन सी बहुमूल्य चीज है जिसे मैं वहां ले जा सकूं?
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तो उन वजीरों ने कहा कि वह तो सिर्फ आप ही हो सकते हैं. लेकिन आपको बदल कर जाना पड़े, साधु होकर जाना पड़े, क्योंकि वह बहुमूल्य चीज सिर्फ साधुता ही हो सकती है जो उस पहाड़ पर, उस एकांत जंगल में भी पहचानी जा सके.
आदमी के मूल्य तो राजधानी की सड़कों पर पहचाने जा सकते हैं, परमात्मा के मूल्य एकांत में भी पहचाने जा सकते हैं. जहां कोई भी पारखी नहीं है, वहां भी वे परखे जा सकते हैं.
साधुता का अर्थ ही खो गया है. तो साधु के नाम से जो बैठे हैं, वे आमतौर से बदले हुए गृहस्थ हैं, जिन्होंने कपड़े बदल लिए हैं. और वे काम वही कर रहे हैं.
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अब एक साधु मुझे मिलते थे. तो मैंने उनसे कहा कि यह मुंह-पट्टी आप बांधे हुए हैं, यह सच में आपको लगती है कि कुछ बांधने जैसी है? उन्होंने कहा कि बिलकुल नहीं लगती.
तो फिर मैंने कहा, इसे छोड़ देनी चाहिए.
तो उन्होंने कहा कि छोड़ अगर इसे दें तो कल खाने-पीने का क्या हो? ठहरने का क्या हो? कौन सम्मान दे? यह मुंह-पट्टी की वजह से सब व्यवस्था है! यह गई, सब व्यवस्था चली जाएगी!
अब यह मुंह-पट्टी भी व्यवस्था का इंतजाम है! यह भी पट्टा है इस बात का कि तुम हमें सुरक्षा दोगे, हम यह मुंह-पट्टी बांधते हैं, हम यह गेरुआ वस्त्र पहनते हैं.
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यह हमें दिखाई नहीं पड़ता कि ये भी सिक्योरिटी मेजर्स हैं. वैसे ही, जैसे हम कुछ इंतजाम कर रहे हैं, ऐसा ही यह भी साधु इंतजाम कर रहा है.
यह भी हिम्मत करने को राजी नहीं है कि खड़ा हो जाए, कि कोई दे देगा तो ठीक, नहीं देगा तो नहीं देगा. रोटी मिलेगी तो ठीक, नहीं मिलेगी तो नहीं मिलेगी.
इतनी हिम्मत जुटा कर यह खड़ा न हो जाए तो इसे गृहस्थ से भिन्न कहने का कारण क्या है?
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सिर्फ एक ही कारण है कि गृहस्थ दूसरों का शोषण करता है, यह गृहस्थों का शोषण करता है. गृहस्थ जो शोषण करता है, उसकी वजह से पापी हुआ जा रहा है; और यह उन पापियों का जो शोषण करता है, उसकी वजह से पापी नहीं हो रहा है! यह पुण्यात्मा है!
यह किसी बंधन में नहीं है! इसने बंधन में न होने का भी इंतजाम किया हुआ है! लेकिन इंतजाम ही बंधन है, यह इसे खयाल में नहीं है.
महावीर मेरी दृष्टी में-(प्रवचन-19)
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